
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
जिसको ऑंखों में रखा सुबह के मंज़र की तरह।
अब वही दिल में उतरने लगा ख़ंजर की तरह।।
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कोई खिड़की नहीं खुलती कि उजाला आए।
क़ैद खाने में ॲंधेरा है मेरे घर की तरह।।
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मुंजमिद* हूॅं मैं किसी कोह* की सूरत अब तो।
ठोकरें खाई हैं पहले यहाॅं पत्थर की तरह।।
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एक सहरा* मेरे अंदर भी मिलेगा तुमको।
एक वुसअत* है मेरे दिल में समंदर की तरह।।
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कोई तख़लीक़ मेरे नाम को ज़िंदा करदे।
कोई बुत मैं भी बनाऊॅं कभी आज़र* की तरह।।
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कोई सच बोल के ख़तरे में पड़ा है शायद।
अब सज़ा उसको मिलेगी वही “अनवर” की तरह।।
मुंजमिद* जमा हुआ जड़
कोह*पहाड़
सहरा* रेगिस्तान
वुसअत* विस्तार फैलाव
तख़लीक़* रचना शायरी
आज़र* एक प्रसिद्ध मूर्तिकार
शकूर अनवर