
– डॉ. आदित्य कुमार गुप्त –
आज जबकि सारा विश्व आभासी दुनियाँ में जी रहा है। जीवन शैली के संदर्भ बदल चुके हैं। अधिकाधिक सुख सुविधाओं की लालसा औद्योगीकरण । बाज़ारवाद और वैश्वीकरण की तेज आँधी ने न केवल मनुष्य को स्वकेन्द्रित कर दिया है । अपितु वसुधैवकुटुम्बकम् एवं सनातन मानवीय मूल्यों की चूलें हिला दी है। प्राकृतिक जीवन सम्पदाऔं – पेड़. जल हवा आदि – पर मानवीय अतिचार ने जीवन के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लगा दिया है। ऐसी परिस्थितयों में बोधि प्रकाशन जयपुर द्वारा सद्य: प्रकाशित डॉ विवेक कुमार मिश्र की कृति ‘ कुछ हो जाते पेड़ सा ‘ पे ड़ के माध्यम से प्रकृति, संस्कृति और समाज को नये संदर्भों में व्याख्यायित करने का प्रयास करती दिखाई देती है । यहाँ पेड़ कोई जड़ या अचेतन पदार्थ भर नहीं है ।अपितु वह अपने में समूची प्रकृति और प्रकृति की गोद मेंउल्लसित संस्कृति और समाज को तमाम वास्तविकताओं के साथ समेटे हुए है । कृतिकार की पैनी नज़र ने गाँव. नगर . महानगर और वैश्विक परिवेश में तेजी से बढ़ रहे पर्यावरण प्रदूषण को मानवीय जीवन के लिए सबसे खतरनाक बताते हुए पेड़ के माध्यम से गाँव से लेकर नगर. महानगर के जीवन और जीवन से जुड़े समस्त परिवेश को बचाने की सार्थक पहल की है । भारतीय समाज अपने समस्त क्रियाकलाप और अपने जीवन की मूलभूत आवश्यकताएँ पेड़ोंं के आश्रय में ही पूरी करते आया
है – ‘ न जाने कितने जीव — पशु– पक्षी व इंसान / इसी पेड़ के नीचे आसरा पाते/. पेड़ राहत की इबादत है । लेखक ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है आज बड़ी तेजी से जंगल के जंगल काटे जा रहे हैं. पेड़ का कटना , केवल पेड़ का कटना नहीं है अपितु एक समाज और संस्कृति की जड़ों का कटना है । पेड़ के साथ जीवन की कथायें जुड़ी रहती है- जीवन भर की कथायें/ पेड़ के साथ उतरती रहती हैं/ पेड़ बाते करता है / संस्कृति की / संस्कार और जीवन के सेतु बंध तैयार होते रहेंगे / पेड़ के साथ संस्कृति की नदियां बहती रहती हैं। पेड़ है तो हम हैं . समाज है . संस्कृति है । हमेतर समाज है । पेड़ तो हमारे जीवन के साथ रचा- बसा है । हमारे सुख दुख का.साथी है । हमारी आँते जब भूख से कुलबुलाती हैं. तो ये पेड़ हमें भोजन देते.हैं. जब भयंकर दोपहरी तपाती है । तब ये छाता बनकर साथ खड़े रहते हैं-‘ भूख लगी– पेड़ ने फल दिया / धूप लगी –पेड़ ने छांव दी/आड़ की जरुरत थी — ठिकाना भी दिया / सहारे की जरुरत थी— सहारा दिया । पेड़ के साये में पूरा का पूरा गाँव बैठकर जीवन की तमाम समस्याओं के समाधान एक साथ बैठकर सुलझाता रहा है. आज पेड़ काटे जा रहें हैं। इसीलिए आपसी झगड़े और ईर्ष्या द्वेष बढ़ रहे हैं । लोग झगड़े निपटाने के लिए अदालतों के चक्कर काट रहे हैं जबकि पहले गाँव के बड़े पेड़ के नीचे बैठकर सब सुलझा लिये जाते थे । पेड़ की हमारे यहाँ पूजा होती रही है। पेड़ों पर धागे बाँधकर मातायें संततियों की रक्षा का कवच तैयार करती है – पेड़.की पूजा होती है / बड़ पर पीपल पर / कच्चा धागा लपेट कर मांये / संततियों की रक्षा का व्रत रखती हैं ।
है – ‘ न जाने कितने जीव — पशु– पक्षी व इंसान / इसी पेड़ के नीचे आसरा पाते/. पेड़ राहत की इबादत है । लेखक ने इस बात पर गहरी चिंता व्यक्त की है आज बड़ी तेजी से जंगल के जंगल काटे जा रहे हैं. पेड़ का कटना , केवल पेड़ का कटना नहीं है अपितु एक समाज और संस्कृति की जड़ों का कटना है । पेड़ के साथ जीवन की कथायें जुड़ी रहती है- जीवन भर की कथायें/ पेड़ के साथ उतरती रहती हैं/ पेड़ बाते करता है / संस्कृति की / संस्कार और जीवन के सेतु बंध तैयार होते रहेंगे / पेड़ के साथ संस्कृति की नदियां बहती रहती हैं। पेड़ है तो हम हैं . समाज है . संस्कृति है । हमेतर समाज है । पेड़ तो हमारे जीवन के साथ रचा- बसा है । हमारे सुख दुख का.साथी है । हमारी आँते जब भूख से कुलबुलाती हैं. तो ये पेड़ हमें भोजन देते.हैं. जब भयंकर दोपहरी तपाती है । तब ये छाता बनकर साथ खड़े रहते हैं-‘ भूख लगी– पेड़ ने फल दिया / धूप लगी –पेड़ ने छांव दी/आड़ की जरुरत थी — ठिकाना भी दिया / सहारे की जरुरत थी— सहारा दिया । पेड़ के साये में पूरा का पूरा गाँव बैठकर जीवन की तमाम समस्याओं के समाधान एक साथ बैठकर सुलझाता रहा है. आज पेड़ काटे जा रहें हैं। इसीलिए आपसी झगड़े और ईर्ष्या द्वेष बढ़ रहे हैं । लोग झगड़े निपटाने के लिए अदालतों के चक्कर काट रहे हैं जबकि पहले गाँव के बड़े पेड़ के नीचे बैठकर सब सुलझा लिये जाते थे । पेड़ की हमारे यहाँ पूजा होती रही है। पेड़ों पर धागे बाँधकर मातायें संततियों की रक्षा का कवच तैयार करती है – पेड़.की पूजा होती है / बड़ पर पीपल पर / कच्चा धागा लपेट कर मांये / संततियों की रक्षा का व्रत रखती हैं ।
आज पर्यावरण प्रदूषण से गहराते जीवन संकट से बचने के लिए हमें पेड़ की रक्षा का व्रत लेना होगा । पेड़ को संतति की तरह पालना होगा । घर के सामने नीम.पीपल आदि के पेड़ पहले की तरह शोभा बनकर जब – तक पुन: नहीं लहरायेंगे. तबतक हम निरामय और खुशहाल जीवन जीने के रास्ते तलाशते रहेंगे । पेड़ रहेंगे तो हम रहेंगे । पेड़ का टूटना हमारे स्वप्नों का टूटना है.कभी कभार कोई डाली टूटती है/ तो साथ में मनुष्य की इच्छा और स्वप्न के कुछ हिस्से टूट जाते हैं’। पेड़ के सब अपन होते हैं। कोई पराया नहीं। वसुधैवकुटुम्बकम् का साक्षात अवतार पेड़ है । वह पिता की तरह संततियों के लालन पालन में धैर्य और जीवटता की प्रतिमूर्ति है । वह किसान की तरह सर्दी गर्मी धूप सहकर अन्न रूपी जीवन देता रहता है । रचनाकार ने इस कृति में पेड़ को मानव जीवन के केन्द्र में रखते हुए . मनुष्य को पेड़ की तरह पर सेवा में जीवन यापन का संदेश दिया है. जो आज मानवीयता के अकाल में सर्वथा उपयोगी और सार्थक
है । कृति निश्चित रूप से पठनीय है।
है । कृति निश्चित रूप से पठनीय है।
डॉ. आदित्य कुमार गुप्त
(सह आचार्य, राजकीय कला महाविद्यालय कोटा)
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