ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
अगरचे ज़िंदगी अपनी बड़े अज़ाब* में है।
अजब नशा सा मगर ज़ीस्त* की शराब में है।।
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सहर* क़रीब है बादे-सबा* न छेड़ उसे।।
अभी तो ऑंख लगी है अभी वो ख़्वाब में है।।
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तुम्हारी याद का दरिया अभी नहीं उतरा।
जो फूल तुम ने दिया था मेरी किताब में है।।
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अभी तो रूह*की गहराइयों का ज़िक्र न कर।
तमाम शहर अभी जिस्म के अज़ाब में है।।
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हज़ार बार लिखे बेरुख़ी* पे अफ़साने।
ये शेर भी तो उसी बेवफ़ा के बाब* में है।।
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जो चंद ग़ज़लें तजुर्बे* ने मुझसे लिखवाईं।
वही कलाम मुरत्तब* मेरी किताब में है।।
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कोई तो फाॅंस मेरे दिल में चुभ गई “अनवर”।
कोई तो ज़ख्म निहाॅं* सीना ए सराब* में है।।
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अज़ाब*कष्टपूर्ण, दुखों में
ज़ीस्त*ज़िंदगी जीवन
सहर*सुबह प्रात काल
बादे सबा* सुबह की ठंडी हवा
रूह*आत्मा
बेरुख़ी*नाराज़गी
बाब में* संबंध में
तज़ुर्बे* अनुभव
मुरत्तब*संपादित
निहाँ*छुपा हुआ
सीना ए सराब*मरीचिका का सीना
शकूर अनवर
9460851271