
अपना आसमान
-माला सिन्हा-

ये कमउम्र बेटियां
सर पर उठाए अथाह खतरों की गठरी
निकल पड़ती हैं
अपने माता पिता की
झुग्गी झोपड़ियों से बाहर
सुदूर इलाकों की ओर
गांव की किसी बुआ, चाची,
या मौसी का हाथ पकड़
विश्वास की पुख्ता ज़मीन पर पांव रखतीं,
बिना यह जाने कि
कहाँ ले जाएगी इन्हें
इनकी भाग्य रेखा
इनका भविष्य इनके समक्ष
मुहं बाए खड़ा होता सदा
फिर भी
ये कभी कोई सवाल नहीं उठातीं
इन्हें यह भी नहीं मालूम होता
नियति क्या रंग दिखाएगी इन्हें
या गलत हाथों में पड़ कर
क्या होगा इनका हश्र
इनकी मंज़िल होती
कोई अंजाना सा घर
किसी पराए घर की ड्योढी पर
थाम लेतीं अपने कदम!
साध लेतीं अपना वज़ूद
रात दिन की नई दिनचर्या में
बांध लेतीं अस्तित्व अपना
घर की चहारदिवारी से!
किस्मत ने साथ दिया तो अपना ली जातीं
घर के अपनों की तरह!
इनकी कमनीय देह
अपने नाज़ुक कंधो पर उठा लेती
अपने जन्मदाताओं की
जर्जर गृहस्थी का बोझ
दुधारी तलवार पर चलता
इनका निरीह जीवन यूं ही
कैद हो कर सिमट जाता
अपने चंद नामालूम से
सपनों की परिधि में,
जहां होती उनकी अपनी ज़मीन
अपना आसमान !
ग्रामीण परिवेश में रहने वाली बालिकाओं की जिंदगी का लेखा जोखा कवियत्री माला सिन्हा ने किया है लेकिन अब स्थिति काफी बदल चुकी है. ग्रामीणांचलों की बालिकाएं अब पढ़ लिखकर अपने भाग्य का स्वयं निर्णय लेने की क्षमता रखती हैं