
ग़ज़ल
शकूर अनवर
कहाॅं से ढूॅंढ के लाऊॅं मैं बस से बाहर है।
सुकूने-दिल* यहाँ तारे-नफ़स* से बाहर है।।
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बचा बचा के नज़र मुझ को देखने वाले।
मेरी वफ़ा मेरी उल्फ़त हवस* से बाहर है।।
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जहाँ सुनो मेरी आवाज़ तुम वहीं रुकना।
मेरी सदा* तो सदा ए जरस* से बाहर है।।
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किसी भी तौर से उसको भुला नहीं सकता।
मैं क्या करूँ ये मेरी दस्तरस* से बाहर है।।
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जवाॅं हो अज़्म* तो तूफ़ान क्या बिगाड़ेगा।
हर उड़ने वाला परिंदा क़फ़स* से बाहर है।।
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जियें तो कैसे जियें हम सुकून से “अनवर”।
यहाॅं तो चैन से मरना भी बस से बाहर है।।
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सुकूने-दिल*दिल का चैन
तारे-नफ़स*साॅंस की डोरी
हवस*वासना
सदा*आवाज़
सदा ए जरस*क़ाफ़िला चलने के लिए बजने वाली घंटी की आवाज़
दस्तरस*पहुॅंच
अज़्म*हौसला
क़फ़स*पिंजरा
शकूर अनवर
9460851271