
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
जहाॅं हर शख़्श के लब पर कुदूरत* का बयाॅं निकला।
मैं उस माहौल में लेकर मुहब्बत की ज़ुबाॅं निकला।।
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बहारे-ज़िंदगी* जिसने ख़िज़ाओं में बदल डाली।
ख़लिश* का एक काॅंटा जो हमारे दरमियाँ निकला।।
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तख़य्युल* का समन्दर मौजज़न* था उसके सीने में।
बुलंदी में वो अपने फ़िक्रो-फ़न* का आसमाॅं निकला।।
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बहारों का ज़माना था चमन में क्यूॅं गिरी बिजली।
फ़ज़ा रंगीन थी इसमें अचानक क्यूँ धुऑं निकला।।
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सुनो अख़बार में तफ़सील* आई है तबाही की।
गिरी थी कल जहाँ बिजली वो मेरा आशियाॅं निकला।।
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अभी पल में ज़मीं पर था, है अब आगे सितारों से।
ये रख़्शे-फ़िक्र* भी “अनवर” कहाॅं पर था कहाँ निकला।।
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कुदूरत*बुराई, नफ़रत
बहारे-ज़िदगी*जीवन का बसंत
ख़लिश यानी शत्रुता जलन
तख़य्युल* ख़यालात, विचार
मौजज़न*ठाठे मारता हुआ उठता हुआ
फ़ीक्रो-फन*काव्य कला और चिंतन
तफ़सील*विवरण
रख़्शे-फ़िक्र,चिंतन रूपी घोड़ा
शकूर अनवर
9460851271