
ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
गो मेरी ज़ीस्त* का हासिल* है तुम्हारा धोखा।
फिर भी कहता हूँ कहीं और न देना धोखा।।
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मैने दुनिया को मुहब्बत ही मुहब्बत दी है।
दुनिया वालों ने दिया मुझको हमेशा धोखा।।
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क्या मेरी अपनी मुहब्बत में कोई ख़ामी* थी।
क्यूँ मेरी राह में अबतक नहीं आया धोखा।।
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क्या करूँ जब मुझे दुनिया में कहीं चैन नहीं।
क्या कहूँ जब मेरी तक़दीर में लिक्खा धोखा।।
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आसमाॅं सर पे है मेरे ये भरम रखता हूँ।
वर्ना ये हद्दे- नज़र* है या नज़र का धोखा।।
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बारहा* मुझसे ये पूछा है मुहब्बत क्या है।
बारहा मैने बताया कि है धोखा धोखा।।
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कोई ख़ूबी हो तो मैं ज़िक्र करूँ भी उसका।
वो मुजस्सम* है सितमगर वो सरापा* धोखा।।
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किस क़दर तल्ख़़ तजुर्बात से गुज़रा “अनवर”।
मैने जब अपना समझ कर उसे खाया धोखा।।
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ज़ीस्त*ज़िंदगी जीवन
हासिल*उपलब्धि
ख़ामी*कमी
हददे नज़र*दृष्टि की सीमा
बारहा*अक्सर
मुजस्सम*सर से पांव तक
सरापा*पूरा शरीर सर से पाॅंव तक
तल्ख़ तजुर्बात*कड़वे अनुभव
शकूर अनवर
9460851271
मुहब्बत की दुकान लगाने वाले को ही जनता ने धोखे में रख छोड़ा है,यह दुनियां की रीति है