ग़ज़ल
शकूर अनवर
हमारे दिल से उठा फिर वही धुऑं काला।
कि जिस धुऍं से हुआ है ये आसमाॅं काला।।
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यहीं कहीं पे कभी सुर्ख़ ख़ूॅं बहा होगा।
पड़ा हुआ है जो ख़ित्ता* यहाॅं वहाॅं काला।।
लहू सफ़ेद वहीं आदमी का होता है।
ज़मीर* होता है इंसान का जहाॅं काला।।
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सियाह रंग बुराई की इक अलामत* है।
मगर हसीन है ऑंखों के दर्मियाॅं काला।।
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सड़क सड़क पे है वहशत* गली गली ख़ामोश।
धुऑं धुऑं सी फ़ज़ा है मकाॅं मकाॅं काला।।
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ज़माना प्यार की ऑंखों से देखना “अनवर”।
वगरना अंधों को लगता है ये जहाँ काला।।
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ख़ित्ता”ज़मीन का टुकड़ा
ज़मीर* अंतरात्मा
अलामत* प्रतीक
वहशत* डर ख़ौफ़
शकूर अनवर