-रामस्वरूप दीक्षित-

लिखा उन्होंने मुझे
अपने पत्र में
कि अब कैसा है
दरवाजे का नीम
उससे पहले जैसी ही झरती हैं पत्तियां या नहीं
उसका तना तो
अब पहले से मोटा हो गया होगा
उस पर बैठने वाली चिड़ियाँ
अब भी उस पर बैठती हैं
या उन्होंने खोज लिया है
कोई दूसरा घर
बाबा जिस डाल को झुकाकर
तोड़ते थे अपने लिए दातुन
वह तो अब ऊपर हो गई होगी
अब उनके लिए
पेड़ पर चढ़कर तोड़ना पड़ती होगी
और पेड़ पर वे किसी को चढ़ने नहीं देते होंगे
अब उनकी दातुन कहाँ से आती है
पत्तियों को बुहारते बुहारते
दर्द होने लगता होगा मां की कमर में
क्योंकि जितने वर्ष चढ़ी होगी
नीम की उमर
उतने वर्ष बुढ़ाई होंगी मां
यह सब उन्होंने
हमसे बहुत दूर
अमेरिका में रहते लिखा
पत्र में मेरा पता भर था
पढ़ने के बाद
मैंने वह पत्र
चुपचाप
नीम के पेड़ के पास रख दिया
-रामस्वरूप दीक्षित
* सिद्ध बाबा कॉलोनी
टीकमगढ़ 472001
मो. 9981411097
इस तरह से कविता सीधे हमारी जिंदगी से, सभ्यता और संस्कृति से उन गांव घरों से जोड़ देती है जिसे छोड़ कर कोई और ही दुनिया रच लिए होते हैं। पर गांव घर और पुरखे रगो में ऐसे बसे होते हैं कि कोई भी कहां भुला पाता किसी न किसी बहाने वहां जाता रहता है। यह पथ स्मृतियों के रास्ते , स्वप्नों के रास्ते भी होकर जाता है और सीधे चलें जाएं तो बात और भी बन जाती है।
मन को झकझोर कर रख देने वाली कविता के लिए बधाई।