एक नज़्म
-शकूर अनवर-
ये कैसी जम्हूरियत
ज़िंदगी में अवाम की हमने
ऐसी हालत कभी नहीं देखी
जिस तरह लोग जी रहे हैं अभी
इसको जम्हूरियत कहें कैसे
चुप रहें भी तो अब रहें कैसे
*
मुंतशिर* हो गया है शीराज़ा
धज्जियां उड़ गईं जमाअत* की
अदलो इंसाफ़* हो गए मफ़लूज*
खिड़कियां बंद हैं समा अत* की
चार पल के सुकून की ख़ातिर
ज़िंदगी हर क़दम तरसती है
हर कहीं ज़ुल्म है तशद्दुद* है
हर तरफ़ मौत कितनी सस्ती है
*
सूरत ए हाल ऐसी पहले भी
हमने बदली थी क्या वो भूल गए
कैसे टूटे थे वो फिरंगी* महल
कैसे तुर्रे* गिरे कुलाहों* के
कैसी बदली थी ये ज़मींदारी
कैसे तोते उड़े थे शाहों के
अब भी आसार बन रहे हैं वही
फिर से किरदार बन रहे हैं वही
अब ये अंदाज़ है सियासत का
एक चेहरा कई मुखोटों में
कोई सुनता नहीं ग़रीबों की
वोट बदले हुए हैं नोटों में
वो भी एक दौर था जो बदला था
ये भी एक दौर है जो बदलेगा
ये भी एक दौर है जो बदलेगा
*
जम्हूरियत” प्रजातंत्र
मुंतशिर* बिखरा हुआ
शीराज़ा* प्रबंधन
जमा अत*सामूहिकता
अदल ओ इंसाफ* न्याय
मफलूज* लकवाग्रस्त
समा अत* सुनवाई
तशद्दुद* जुल्म
फिरंगी*अंग्रेज़
तुर्रा” फूंदा।
कुलाहों* ताज या मुकुट
शकूर अनवर