शहर में और भी घर थे मगर उनसे बचकर। ग़म का सैलाब* उठा मेरे मकाॅं तक पहुॅंचा।।

shakoor anwar
शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

अज़्म* देखा जो सितम गर का यहाॅं तक पहुॅंचा।
वो मेरे हाथ क़लम करके* ज़ुबाॅं* तक पहुॅंचा।।
*
सब मुझे ढूॅंढने सहरा* की तरफ़ निकले हैं।
मेरी आवाज़ का जादू भी कहाँ तक पहुॅंचा।।
*
हाथ आये* न सितारे भी ख़िरद* वालों के।
ये मेरा दस्ते जुनूँ* था कि वहाँ तक पहुॅंचा।।
*
हादिसा था तेरा मिलना सो तुझे भूल गये।
ओर जब याद किया फ़ितना ए जाॅं* तक पहुॅंचा।।
*
शहर में और भी घर थे मगर उनसे बचकर।
ग़म का सैलाब* उठा मेरे मकाॅं तक पहुॅंचा।।
*
ख़ून टपका है मेरा अपने क़लम से “अनवर”।
मुतमइन* हूँ कि लहू हर्फ़ ए बयाॅं तक पहुॅंचा।।
*

अज़्म*हौसला
क़लम करना* मिटा देना काट देना
ज़ुबाॅं*भाषा
सहरा* रेगिस्तान
हाथ आना*पकड़ में आना
ख़िरद वालों*बुद्धिजीवियों अक़्लमंदों
दस्ते जुनूॅं*दीवानगी में उठा हुआ हाथ
फ़ितना ए जाॅं* जान पर बन जाना
ग़म का सैलाब*दुखों की बाढ़
मुतमइन*संतुष्ट
हरफ़े बयाॅं*वो शब्द जिनके द्वारा वर्णन किया गया हो

शकूर अनवर
9460851271

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