
-लक्ष्मण सिंह-

जल्दबाजी में फिसली जुबां,
गुस्से में कड़वी जुबां,
आवेश में बेलगाम जुबां,
मनुहार में मीठी जुबां,
बचपन में तोतली जुबां,
ममता में प्यारी जुबां,
यूं ही कोसी, सराही जाती जुबां
दिल दिमाग में फंसी जुबां
इनके इशारों पर चलती जुबां
दिमाग की वकील है जुबां
दिल की कही है जुबां
स्वाद पर लपलपाती जुबां
कड़वाहट पर हुलकती जुबां
ताकतवर होने पर खामोश होती जुबां
कमजोरी पर चिल्लाती जुबां
दिमाग में चोट लगे तो घुर्राती जुबां
दिल में घाव करे तो सिसकती जुबां
लड़ाती व मिलाती जुबां
होठों से लंबी निकले तो चिढ़ाती जुबां
लबों पर फिर जाय तो लुभाती है जुबां
शोहरत को परवान चढ़ाती जुबां
बदनामी के दलदल में धकेलती जुबां
दांतों की सलाखों में बंद रहती जुबां
कभी-कभी दातों के बीच आने पर कराहती जुबां
सलाखें हटे तो कुछ भी कर गुजरती जुबां
कोसो ना इसे सराहो ना इसे,
दिल दिमाग की कठपुतली है जुबां
लक्ष्मण सिंह