सिर्फ शरीर भर नहीं होती माँ

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फोटो साभार नीलम

-रानी सिंह-

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रानी सिंह

माँ परतों में बिछी होती है

रसोई में जब पुराना चूल्हा टूटा
तो उसका चेहरा दिखा
चूल्हे की पकी माटी की परतों में
जिसे लेपा था उसने ही
गीली माटी में अपने स्पर्श को सान कर

जब टाट-फूस का वह आखिरी घर उजाड़ा गया
जो माँ को बेहद प्यारा था
उसकी भर-भराकर गिरती भीत के
चटक रंगों की परतों से
झाँकती मिली वह
वे रंग उसके उम्मीदों और सपनों के रंग थे
जिसे उम्रभर सहेजती रही भीत पर
फूल-पत्तियों में भरकर

चैत-बैसाख के रूखे दिनों में
जब पछुआ चलती है बेख़ौफ़
तब आँगन से उखड़ती पपड़ियों में भी
दिखती है वह
जिसे पिछली बरसात के बाद
गोबर-माटी से आँगन में जमाते हुए
खुश होती कि
चलो अब गए दिन कीचड़ के

वो उखड़ती है
परत-दर-परत
फटे-पुराने भोथड़ों से
कभी अपनी मनपसंद कत्थई साड़ी में
जिसे बाबूजी लाए थे कलकत्ता से
कभी मामा की शादी में मिली
गुलाबी साड़ी में
तो कभी छठ पूजा वाली लाल साड़ी में

सिर्फ शरीर भर नहीं होती माँ
जिसका एक बार अवसान हो जाए
तो वह मिट जाए हमेशा के लिए
माँ तो बिछी होती है
कई-कई परतों में
घर में, आँगन में
जीवन में……
©️ Rani Singh रानी सिंह

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