
ग़ज़लः
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-डॉ.रामावतार सागर-

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आखिर कसूर क्या था जो काटी गई पतंग
कटना नसीब था तो क्यों बाँधी गई पतंग
किस किस के गुजरी हाथों से बेची गई पतंग
बाजार में खरीद के छोड़ी गई पतंग
है डोर रब के हाथ में दुनियां का डर नहीं
बेखौफ आसमान में उड़ती गई पतंग
उसका भी हाल हो गया अब मेरे जैसा ही
हालात और जज्बात् की मारी गई पतंग
कैसे कहूं के आज भी दिल उसको चाहता
यादों में बस गयी है वो चलती गई पतंग
अखबार में छपे हुए इक इश्तिहार सी
लेकर के हाथ-हाथ में बाँची गई पतंग
इकरार करके मुझसे से मेरे होश छीन कर
सागर वफा न कर सकी छलती गई पतंग
डॉ.रामावतार सागर
कोटा, राजस्थान
9414317172
वाह सागर साहब क्या बात कही