
-रामस्वरूप दीक्षित-

जब भी
तुम बोलती हो
बोलते हुए कुछ
या रहते हुए चुप
या देखते हुए
मुझे
तब खिल उठती है
आवाज की देह
शब्द नाचने लगते हैं
पहनकर रंगीन कपड़े
भाषा तैरने लगती है
भावों के गहरे समंदर में
तुम्हारा स्पर्श पाकर
आग उगलते शब्द
हो जाते बर्फ में तब्दील
एक राग बज उठता है
मन की वीणा के तारों में
तुम्हारा बोलना
महज बोलना भर नहीं होता
वह होता है
धूसर चित्र में
रंग भरना
और होता है
ठूंठ में पैदा करना
कोंपल फूटने की उम्मीद
रामस्वरूप दीक्षित
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