
॥ किताबें ॥
-राजेश्वर वशिष्ठ-

आज सुबह मैं चौंक गया
जब सामने अलमारी में रखी किताबें
धीमे-धीमे मुस्कुराने लगीं।
कइयों ने तो
अपने नन्हे-नन्हें हाथ बढ़ाए मेरी ओर।
मुझे लगा गर्मी की छुट्टियों में –
मेरी बेटियाँ लौट आई हैं बोर्डिंग स्कूल से!
वे सभी संवेदनाएँ जो दुनिया को बचा सकती हैं
अब इन लाल-हरी-पीली-नीली
मोटी-पतली किताबों में बंद हैं।
बुरे वक्त में कवियों ने उन्हें
चुपके से इन किताबों में छिपा दिया था।
अगर किसी दिन तुम्हें अहसास हो
कि तुम्हे इस दुनिया को बचाना चाहिए
तो ये किताबें तुम्हारा हथियार हैं।
मनुष्यों की अनुभूति और कल्पनाएँ
धरती से आकाश-गंगा तक की यात्रा तय करती हैं।
फिर वे नन्हे बच्चों की तरह दुबक कर बैठ जाती हैं
सफेद काग़ज़ पर छपे काले हर्फों में।
यहाँ सूरज अकेला नहीं है
साथ में अगणित चाँद और सितारें भी हैं।
सुनेत्रा,
किताबें हमारे ब्रह्मांड को चुनौती देता हुआ
एक अलग ब्रह्मांड हैं।
— राजेश्वर वशिष्ठ