ग़ज़ल
-शकूर अनवर-
फिर वही सीना ज़मीं का चाक है।
फिर कोई अपना सुपुर्दे- ख़ाक* है।।
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कुछ तो मेरे पास भी इदराक* है।
वो ये समझा बस वही चालाक है।।
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क्या दिया है सरमद ओ मंसूर* को।
सोच ले दुनिया बड़ी सफ़्फ़ाक है।।
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पाॅंव में ज़ंजीर है हालात की।
और सर पर गर्दिशे-अफ़लाक* है।।
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इस ज़मीं पर अब कहाॅं सजदा करें*।
ख़ून के छींटों से ये नापाक* है।।
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डूबने देगा न ये हरगिज़ मुझे।
मेरे अंदर जो छुपा तैराक है।।
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सीधे-सादे रास्ते मुश्किल हुए।
भोला-भाला राहबर चालाक है।।
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आज मैं हो जाऊॅंगा उसका शिकार।
आज उसके हाथ में फ़ितराक*है।।
तल्ख़ियाँ* भी हैं तेरे अशआर में।
बात भी “अनवर” तेरी बे बाक* है।।
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सुपुर्दे-ख़ाक* मिट्टी में मिलाना, दफ़्न करना
इदराक*अक्ल’ बुद्धि
सरमद ओ मंसूर*दो संतों के नाम जिन्हें मौत की सजा दी गई
सफ्फाक*ज़ालिम,अत्याचारी
गर्दिशे-अफ़लाक”*समय चक्र, आसमानों की गर्दिश
सजदा करना*माथा टेकना
ना पाक*अ पवित्र
फ़ितराक*शिकार का सामान रखने का थैला
तल्खियाँ*कड़वाहटें
बे बाक*सटीक
शकूर अनवर
9460851271