– विवेक कुमार मिश्र-

सुबह की चाय
खिली खिली धूप से
धूप घुली हवाओं से
चिड़ियों की चीं – चीं ध्वनियों से
और चाय पत्ती के साथ
हवाओं की छुअन लिए
ऐसे पकती है कि
चाय के साथ दिन एक नये राग में आ जाता।
सुबह की चाय
आलस , जड़ता , अनमनापन से
जगाकर अपने भाप में उड़ा ले जाती हैं
देश देशांतर की आवाज बन आती हैं
और सुबह – सुबह संसार की सारी ध्वनियों से
संवाद करते करते
एक सिरे पर ऐसे जोड़ देती हैं कि
चाय है और आप चाय पर
दुनिया को देख समझ रहे हैं
सुबह सुबह की चाय
रचती है दिन भर का रंग संसार
दिन भर के काम काज का हिसाब
और यह भी कि क्या करना है
क्या कुछ नये सिरे से देखना है
जानना समझना है सब
सुबह की चाय ऐसे सामने रख देती है कि
इसके बाद कुछ बचता ही नहीं
इस तरह सुबह की चाय
अपने रंग स्वाद और भाप को लिए हुए
पूरे दिन का राग संसार रच जाती है
इतना ही नहीं सुबह – सुबह की चाय
दिन को दिन बना जाती है ।
– विवेक कुमार मिश्र