
गंधविरोजा
-प्रतिभा नैथानी-
जल्दी से जल्दी आसमान छू लेने की होड़ में तीन-चार बरस के अंतराल में ही ख़ूब ऊंचे हो जाने वाले यह पेड़ यूरोपीय देशों में बहुत पाए जाते हैं। अंग्रेज आए तो अपने साथ इनके बीज भी लेते आए, और हमारे देश के पहाड़ी इलाकों में भी अब इनकी कोई कमी नहीं। कोयला और तेल के रूप में तो उपयोग होता ही है, इसके अलावा आयुर्वेदिक फायदे भी अनेक हैं। फेफड़ों में यदि सूजन आ गई हो तो चीड़ के तेल की मालिश से फायदा होता है। इसकी छाल में विटामिन सी बहुत होता है इसलिए मुंह के छालों में इसके चूर्ण से बड़ा आराम मिलता है। पेट के कीड़े मारने के लिए भी इसका औषधीय प्रयोग किया जाता है। पहाड़ के बड़े-बूढ़े इसकी छाल का उपयोग चाय में करते थे , इसी से वहां चश्मे वाले या मोतियाबिंद की शिकायत वाले लोग कम मिलते हैं।
रानीखेत के जंगलों में देखा था कि घास लेने को जाती औरतें इसकी फलों को भी खासतौर से बटोर लाया करती थीं। पूछने पर बताती हैं कि हमारे लिए इसका फल बादाम है। स्थानीय भाषा में इसे छ्यूंत बोलते हैं। हलवाई इसका उपयोग मिठाईयों में करते हैं। बाल मिठाई और बर्फी खाने वाले जानते हैं कि इसके बीजों की मिलावट से स्वाद कितना बढ़ जाता है। शेष.. पहाड़ी औरतों के चेहरे की लाली, आंखों की चमक और सेहतमंद लंबे काले बाल देखकर कहा जा सकता है कि यह विटामिन ए का भी भरपूर ख़ज़ाना है ।
चीड़ के तने पर कट लगाकर जो गोंद निकाला जाता है, उसे गंधविरोजा कहते हैं । दाद, खाज खुजली समेत कहीं घाव होने पर या चोट लगने पर खून न रुकने की स्थिति में यह बहुत काम की दवा है। लकवा होने पर गंधविरोजा का उपयोग शत प्रतिशत ठीक होने की गारंटी मानी जाती है।
इधर जबसे यह ख़ोज हुई है कि यह ज़मीन का सारा पानी सोख लेता है। अपने आसपास किसी अन्य पौधे को नहीं पनपने देता। इसकी सूखी पत्तियां आग फैलाने में सहायक होती हैं ,तो वनाग्नि का मुख्य कारण भी इसे मान लिए जाने के कारण यह अब लोगों की आंख में खटकने लगा है। घने जंगलों के बीच-बीच में गिर रहे सैकड़ों अधजले पेड़ देखकर लगता है कि धीरे-धीरे यह विरल हो जाएंगे, और फिर विलुप्त। हालांकि कुछ स्वयं सहायता समूह इसकी पत्तियों से चटाई, टोकरी, टोपी और चप्पल जैसी सामग्रियों का निर्माण कर रही हैं। इससे प्रदेश की आर्थिकी में बदलाव आएगा। ‘पर्वतीय अंचल के लोगों को रोजगार मिलेगा’ जैसी बातें भी वह करते हैं।
पहाड़ में चढ़ाई चढ़ने में तो आपको मेहनत करनी ही पड़ेगी लेकिन उतराई में यदि आप चीड़ के जंगलों से होकर गुजर रहे हैं तो पांव लटका कर सूखी पत्तियों पर बैठ जाइए और सर्र से फिसलते हुए मिनटों में मनचाही दूरी तय हो जाएगी। इसकी पत्तियों का सबसे बढ़िया उपयोग तो यही है। एक बात और याद आई कि इधर शहरों में डेंगू बहुत ज़्यादा फैल रहा है। अपने मोहल्ले में फॉगिंग ना होने का रोना छोड़कर यदि हम पहाड़ से चीड़ की सूखी पत्तियां मंगवा ले और रोज़ उन्हें जलाते रहें तो मच्छर आसपास नहीं फटकेंगे।
कुछ महीने पहले इन चीड़ के जंगलों में घूमने का मौका मिला था। सरसराती ठंडी हवा की छुअन और सूखी पत्तियों पर फिसलन का रोमांच याद आते ही मन मचल उठा एक बार फिर से वही ख़ुशबू सांसों में भरने को – गंधविरोजा।