“तोल मोल के बोल”

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-विष्णुदेव मंडल-

विष्णु देव मंडल

चेन्नई। कहावत है तीर कमान से, बात जुबान से और प्राण शरीर से जब एक बार निकल जाते हैं तो वापस नहीं लौटते। इसीलिए खासकर राजनेताओं को सोच समझकर और तौलकर बोलना चाहिए, क्योंकि वे लाखों लोगों को प्रतिनिधित्व करते हैं। उनके शब्दों से कोई आहत ना हो और ना ही वह कानूनी शिकंजे में फंस सकें! 24 मार्च का दिन कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के लिए बेहद दुखद रहा क्योंकि गुजरात के सूरत की एक अदालत ने आपराधिक मानहानि मामले में राहुल गांधी को दोषी करार देते हुए 2 साल की सजा सुनाई। बाकी का काम लोकसभा सचिवालय ने पुरा कर दिया।
बहरहाल राहुल गांधी अब सांसद नहीं है और विपक्षी पार्टियों समेत कांग्रेस इस अप्रत्याशित घटना का ठीकरा केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री पर फोड़ रही है।
कहते हैं प्यार और जंग में सब कुछ जायज होता है जब आप राजनीति लड़ाई लड़ रहे हैं तो मौका पर चौका तो लगाना ही पड़ेगा। अवसर की तलाश में बैठे बैठे सत्ताधारी दाल ने नेहरू गांधी परिवार के इकलौते वारिस को बडबोलेपन का अंजाम तक पहुँचाने में देर नहीं की, और राहुल गांधी अब पूर्व सांसद वायनाड हो गए।
ऐसा नहीं कि राहुल गांधी इकलौते सांसद हैं जो बोलते समय शब्दों के चयन में गलती करते रहते हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं अन्य क्षेत्रीय दलों के नेताओं ने कई बार शब्दों के चयन में इस तरह की गलती की है।
खासकर राहुल गांधी ने तो सांसद रहते हुए लोकसभा द्वारा पारित अध्यादेश तक को भी फाड़ कर कचरे के टोकरी में फेंक दिया था। आज उसी अध्यादेश ने उनके लिए सबसे बड़ी विकट स्थिति उत्पन्न कर दी है। देश-विदेश में कई जगह राहुल गांधी कहने को तो वह केंद्र सरकार के फासीवाद के खिलाफ लड़ रहे हैं लेकिन बोलते समय शब्दों के चयन में वह अक्सर देश को निराश कर देते हैं।

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लिहाजा राजनीति में बदले की कारवाई, लोकतंत्र की हत्या, विपक्षियों को टारगेट की बातें राजनीति में बेमानी प्रतीत हो रही हैं। मसलन सास भी कभी बहू थी सीरियल की तरह भारत की राजनीति है। कांग्रेस पार्टी ने लंबे समय तक हिंदुस्तान पर राज किया है जिनमें डेढ़ दशक तक राहुल गांधी भी लोकसभा के सांसद रहे हैं। उनकी सरकार में भी विपक्षियों पर द्वेष पूर्ण कार्रवाई की गई है इसलिए यह बात मायने नहीं रखती कि मौजूदा सरकार क्या कर रही है। कहीं ना कहीं जो भी राजनीतिक पार्टियां देश और राज्यों में है लोकतंत्र को अपने तरफ से महिमामंडन करती हैं। कोई राजनीतिक दल अपने गिरेबान में झांकने को तैयार नहीं है लोकतंत्र और संविधान कि बार-बार दुहाई देने वाले राजनीतिक दल और नेता इनकी मखौल उड़ाते रहे हैं। आज जरूरत है राजनीतिक शुचिता और जनप्रतिनिधियों को मोल तोल कर बोलने का ताकि जनता को यह समझ में आए कि उनके प्रतिनिधि सच्चे और अच्छे हैं। मुझे लगता है राहुल गांधी की सदस्यता जाने के बाद जनप्रतिनिधियों को इस बात की भान होगा कि उनकी अमर्यादित बोली उनके सदस्यता को रद्द भी करवा सकती है।
बहरहाल राहुल गांधी की सदस्यता रद्द होने के बाद विपक्षी दलों में एकता की गुंजाइश बढ़ गई है। साथ ही कांग्रेस को केंद्र के सरकार के खिलाफ जनता के बीच आक्रोश पैदा करने का मुद्दा मिल गया है। अब देखना है कांग्रेस पार्टी इस मुद्दे को किस तरह इस्तेमाल करती है।
(लेखक चेन्नई निवासी स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं)

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