‘मेरे घर आ के तो देखो’ ताकि मिलकर आज़ादी मनायें

-संजय चावला-

करण जोहर की‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ उनकी अन्य फिल्मों की तरह यह भी एक फेमिली ड्रामा है पर इसमें हमारे समाज को आईना दिखाने का प्रयास किया गया है. हमारा समाज बातें तो विविधता में एकता और वासुदेव कुटुम्बकम की करता है किन्तु जब अपने लिये किसी इलाके में मकान देखने जाता है तो पहले यह देखता है कि अडोस पड़ोस में कौनसी जाति समुदाय के लोग रहते हैं. फिल्म का नायक पंजाबी मुंडा है जिसे एक बड़ी ही पढ़ी लिखी,परिष्कृत लड़की से प्रेम हो जाता है. लड़की बंगाली है और बड़ी ही गंभीर किस्म की टीवी एंकर है. उसका पिता कथक डांसर है और उसकी माँ दिल्ली विश्विद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफ़ेसर है जबकि नायक का बिजनेस परिवार है. उनका मिठाई का पारिवारिक व्यवसाय है जिसपर दादीमाँ का पूरा नियंत्रण है. दादीमाँ पितृसत्तात्मक सोचर खती है और मिसोजिनिस्ट (स्त्री जाति को कमतर आंकने वाली) है. हीरो के पिता पर भी दादी माँ का पूरा असर है और उन्होंने अपनी पत्नी को अपने पैरों की जूती से बढकर नहीं समझते. उनके लिये उनकी बेटी भी सिर्फ एक ऑब्जेक्ट है जिसे जैसे तैसे विवाह करके विदा करना है. दोनों परिवारों केबीच वैचारिक, सांस्कृतिक खाई इतनी गहरी है कि वैवाहिक मेल संभव ही नहीं लगता. इधरसंयोग से मालूम पड़ता है किनायक के दादाजी और नायिका की दादी के बीच कभी प्रेम हुआ था किन्तु सामाजिक कंडिशनिंग के चलते उनका विवाह नहीं हो सका और दोनों प्रेमविहीन विवाह के शिकार हो गए. अब नए युग का जोड़ा तय करता है कि उन्हें अपने अपने परिवारों को सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों से मुक्त कराना है. दोनों एक दूसरे के घरों में तीन तीन महीने के लिए शिफ्ट हो जाते हैं. उनके वहां रहने से दोनों परिवारों को कुछ सीखने को मिलता है साथ ही कुछ सीखी हुई चीज़ें हैं उन्हें भुलाना होता है. अंग्रेजी में इसे लर्न और अनलर्न कहते हैं. नायक सीखता है कि नारी का सम्मान उसे देवी मानकर पेडस्टल पर बिठाना नहीं होता बल्कि उसे एक इंसान समझ कर सम्मान देना होता है. पंजाबी और बंगाली परिवारों के सम्बन्ध में भी कुछ आम धारणायें बनी हुयी हैं जिनका भी खुलासा किया जाता है. यह सुझाने की कोशिश की गयी है कि पितृसत्तात्मक सोच के भौगोलिक या लैंगिक आधार नहीं होते.
फिल्म की इसी थीम पर हमारे देश की एक सामाजिक सांस्कृतिक संस्था ‘अनहद’ आगामी 15 अगस्त से एक अभियान शुरू करने जा रही है. संस्था देश के सैकड़ों धर्मनिरपेक्ष जनवादी संगठनों के साथ मिलकर#मेरेघरआकेतोदेखो अभियान चलायेगी जिसके अंतर्गत अलग अलग कम्युनिटी के लोग एक दूसरे के घर जायेंगे चाय पानी करेंगे, रहनसहन देखेंगे, एक दूसरे के विचारों को जानेगे. संस्था को लगता है कि इससे देश में जो नफरत का माहौल पैदा हो रहा है उसमे कुछ हद तक कमी तो आएगी. यह देखना होगा की दोनों परिवार अलग अलग धर्म, जाति, वर्ग, समुदाय, क्षेत्र, भाषायी जगत के हों. इसके बाद दूसरा परिवार पहले वाले परिवार को अपने घर आमंत्रित करेगा. परिवारों के मेलजोल की तस्वीरें सोशल मिडिया पर #मेरेघरआकेतोदेखो के साथ डाली जाएँगी. यह अभियान 15 अगस्त से शुरू होकर अगले वर्ष की 30 जनवरी तक चलेगा पर समाज में प्रेम और समझ बढाने के उद्देश्य से इसे आगे भी बढाया जा सकता है.
शिक्षा के प्रसार के बावजूद हमारे समाज में जातिगत और धार्मिक वैमनस्य बहुत बढ़ गया है. मैं जब सरकारी नौकरी करने एक कस्बे में गया (जो अब तो जिला बन चुका है) और एक सहयोगी के साथ कमरा ढूंढ रहा था तो मकान मालिक ने मेरे सहयोगी को अलग ले जाकर पूछा कि गुरूजी कौन जात हैं? इसी प्रकार निम्न वर्ग का मेरा एक मित्र जॉइन करने आया तो मुझे उसे दूसरे धर्म के मोहल्ले में कमरा दिलाना पड़ा. मेरे हर जाति और धर्म के मित्र हैं और मेरा सपरिवार उनके घर आना जाना है. जिस जाति के लिए माना जाता है कि वे गंदे रहते हैं मैंने पाया के उनके यहाँ तो हमसे अधिक साफ़ सफाई रहती है. एक धर्म के लोगों के लिए कहा जाता है कि वे नॉनवेज बहुत खाते हैं जबकि मेरे तीन छात्र ऐसे हैं जिनके परिवारजन उनके लिए कहते हैं कि हमारे घर तो यह ब्राह्मण पैदा हो गया. उम्मीद है #मेरेघरआकेतोदेखो अभियान सफल होगा और हम ढेरों पाले हुए पूर्वाग्रहों से मुक्त होंगे.

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