
राष्ट्रीय बालिका दिवस पर पर विशेष
-प्रतिभा नैथानी-

1962 की लड़ाई में चीनी फौज द्वारा अरुणाचल प्रदेश की एक चौकी कब्जाने की कोशिश नाकाम करने में भारतीय सेना के कई जवान मारे गए। चौकी खाली करने का निर्देश मिलने के बाद भी राइफलमैन जसवंत सिंह ने चौकी न छोड़ी। शक्तिशाली दुश्मन का अकेले मुकाबला करना बहुत मुश्किल था। तब दो स्थानीय लड़कियों सेला और नूरा की मदद से उन्होंने अलग-अलग जगहों पर मशीनगन और राइफलें फिट कर दीं। वे फायरिंग कर रहे थे, दुश्मन को यह जताने के लिए कि हमारे पास बहुत सारे सैनिक हैं। दिनभर लड़ाई लड़ते हुए जसवंत सिंह ने चीन के तीन सौ सैनिकों को मार गिराया था। किंतु रात में वास्तविकता पता चल जाने का भय था कि चौकी पर पूरी बटालियन नहीं बल्कि एक अकेला सैनिक है।
अपनी जान जोख़िम में डालकर नूरा और सेला फिर जसवंत सिंह की मदद को आ पहुंची। इस बार वह अपनी भेड़ों समेत आई थीं। भेड़ों के गले में लालटेन टांगकर अलग-अलग खड़ा कर दिया, ताकि बड़ा क्षेत्र रोशन देखकर चीनियों को लगे कि भारतीय चौकी पर अभी-भी बहुत सारे सिपाही हैं।
दुश्मन रात-भर चौकी की तरफ़ आने की हिम्मत न जुटा सका। क्योंकि भारतीय सेना को रसद पहुंचाने वाला सिपाही दुश्मनों के हाथ लग चुका था और उसने चौकी पर सिर्फ़ एक सिपाही होने के बात चीनी फौज को बता दी। चीनी कमांडर का खून खौल उठा। एक अकेले सिपाही ने उसके 300 फौजियों को मार गिराया था। नूरा और सेला की मदद से यह बहादुर सिपाही अब भी अपनी चौकी को दुश्मनों के कब्जे से मुक्त रखने की लड़ाई लड़ रहा था। 72 घंटे तक चली लड़ाई के आख़िर में चीनी सैनिकों की एक गोली से जसवंत सिंह मारे गए। सेला भी मारी गई। नूरा को चीनी सैनिकों ने अपने कब्जे में ले लिया। चीनी कमांडर, जसवंत सिंह का सिर काट कर अपने साथ ले गया था।
जसवंत सिंह की बहादुरी की कहानी को बयान करने के लिए वहां कोई नहीं था। 18 दिन बाद जब युद्ध समाप्त होने की घोषणा हुई तो चीनी फौज ने इस बहादुर जवान की वीरता का सम्मान करते हुए उनका पीतल का सिर बनाकर भारतीय फौज को सौंपा।
निश्चित है कि नूरा और सेला की कहानी भी हमने चीनियों की जुबानी ही सुनी होगी।
शहीद राइफलमैन जसवंत सिंह रावत के परिवार को पेंशन नहीं बल्कि पूरी तनख्वाह दी जाती है। महावीर चक्र से सम्मानित शहीद जसवंत सिंह को जीवित फौजी की तरह ही छुट्टियां और प्रमोशन भी दिए जाते रहे हैं।
नूरा और सेला का नाम एक दर्रा और झरने को दे दिया गया है। लेकिन सेला ‘पास’ और नूरा ‘झरना’ काफी नहीं है इनके बलिदान की कहानी कहने को।
यह सच है कि आधुनिक भारत में बेटियों को आगे बढ़ाने के लिए तमाम प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन देश-काल और परिस्थितियों के अनुसार पूर्व में भी जिन बेटियों ने कुछ सर्वोच्च किया है , उन्हें याद किया जाना ज़रूरी है।
राष्ट्रीय बालिका दिवस पर नूरा और सेला की याद में कोई डाक टिकट या फिर पाठ्यक्रम में इनकी कहानी जैसा कुछ होना चाहिए।
(प्रतिभा नैथानी कवयित्री, लेखिका एवं डिजिटल क्रिएटर हैं, यह लेखिका के निजी विचार हैं)