पानी-पानी देश और समाज

कांक्रीट की आलीशान इमारतों, नकली पेड़-पौधों और उन पर जगमगाती बिजली की लड़ियों में हमारा सौंदर्यबोध सिमट कर रह गया। स्मार्ट बनने के चक्कर में पुरखों के दिए ज्ञान को हमने उपेक्षित करना शुरु किया और अब मूर्खता के जीते-जागते पुतले बनकर हम रह गए हैं। हर साल गर्मी में मरना, फिर बारिश में मरना और ठंड में भी मरना, यही आम हिंदुस्तानियों की नियति बन कर रह गई है।

#सर्वमित्रा_सुरजन

भारत के अधिकतर राज्य इस वक्त पानी-पानी हो रहे हैं। धरती जलमय हो रही है क्योंकि मानसून अपने पूरे जोश में है। घटाएं खूब उमड़ रही हैं और बरस रही हैं, बादल गरज भी रहे हैं, बरस भी रहे हैं। लेकिन एक-दो हफ्तों की बारिश से जो हाल बेहाल हो रहे हैं, उसमें समाज को शर्म से पानी-पानी हो जाना चाहिए। जम्मू-कश्मीर से लेकर केरल तक देश के कई राज्यों में जमकर बारिश हो रही है। देश की राजधानी दिल्ली में तो शनिवार को हुई बारिश ने 40 साल का रिकार्ड तोड़ दिया। दिल्ली की सड़कें और नामी-गिरामी आलीशान रिहायशी इलाकों में अनाम नदियां बहने लगी हैं।

देश के कई शहरों को क्योटो, पेरिस, शंघाई जैसे बनाने का दावा करते हुए आखिरकार राजधानी को वेनिस बनाने में कामयाबी मिल ही गई है। अकेले दिल्ली ही नहीं, देश के और तमाम शहर जहां खूब बारिश हुई है, इस वक्त नदियों, झीलों और नहरों के शहर ही नजर आ रहे हैं। क्योंकि बारिश की बूंदों को सहेजने के अपने पारंपरिक ज्ञान को भुलाते हुए हमने तालाबों, बावड़ियों, कुओं के महत्व की उपेक्षा करनी शुरु कर दी। स्मार्ट सिटी और शहरों के सौंदर्यीकरण के पीछे दीवानगी बढ़ती रही।

कांक्रीट की आलीशान इमारतों, नकली पेड़-पौधों और उन पर जगमगाती बिजली की लड़ियों में हमारा सौंदर्यबोध सिमट कर रह गया। स्मार्ट बनने के चक्कर में पुरखों के दिए ज्ञान को हमने उपेक्षित करना शुरु किया और अब मूर्खता के जीते-जागते पुतले बनकर हम रह गए हैं। हर साल गर्मी में मरना, फिर बारिश में मरना और ठंड में भी मरना, यही आम हिंदुस्तानियों की नियति बन कर रह गई है।

अभी 10-15 दिनों की बारिश में देश भर में कम से कम 30 मौतें हो चुकी हैं, हजारों लोगों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा है। किसी राज्य में येलो अलर्ट है, किसी राज्य में रेड अलर्ट। कम से कम दो महीने बारिश के और बचे हैं और इन 60 दिनों में और कितने लोग बेमौत मारे जाएंगे, कहा नहीं जा सकता। अभी तीन हफ्तों पहले तक ऐसी ही चर्चा गर्मी और लू के कारण होती थी। उत्तर भारत के कई इलाके लू की चपेट में थे और तब कम से कम 70 मौतें गर्मी की वजह से हो गई थीं। डॉक्टरों की सलाह होती है कि लू से बचने के लिए बाहर न निकलें, बारिश में भी कोई बाहर नहीं रहना चाहता। लेकिन रोजगार के लिए तो बाहर निकलना ही पड़ेगा। असंगठित क्षेत्र में काम कर रहे लाखों मजदूरों के लिए मौसम देखकर सुविधा से काम करना विलासिता से कम नहीं है। वे ऐसी विलासिता का उपभोग नहीं कर सकते। मौसम की मार से बच जाएंगे तो भूख से मर जाएंगे। इसलिए गर्मी हो या बरसात उन्हें बाहर निकलना ही है। किसानों पर भी यही बात लागू होती है। उन्हें अपनी आजीविका चलाने के लिए खेत में उतरना ही है, चाहे जैसा मौसम हो।

मौसम देखकर घर से न निकलना थोड़ी देर की राहत दे सकता है, लेकिन ये उस समस्या का समाधान कदापि नहीं है, जिससे करोड़ों लोग पीड़ित हो चुके हैं। अभी जो बारिश हो रही है, वो मौसम का सामान्य मिज़ाज है। फिलहाल इसके लिए जलवायु परिवर्तन को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। बारिश में अभी जो मौतें हो रही हैं, वो करंट लगने, कच्चे निर्माणों के टूटने या एकदम से पानी भर आने जैसे कारणों से हो रही हैं। इसके लिए सरकार और प्रशासन जिम्मेदार है। जो करोड़ों-अरबों खर्च करने के बाद भी ऐसा ढांचा विकसित नहीं कर सका, जिसमें बारिश का पानी धरती के नीचे चले जाए। अगर बारिश की हर बूंद को सहेजा जाए, तो फिर गर्मी में उसका भरपूर इस्तेमाल किया जा सकता है। जैसे घरों में आड़े वक्त के लिए पैसे जोड़ कर रखे जाते हैं, वैसे ही बारिश की बूंदों को जोड़कर रखने की जरूरत है।

अनुपम मिश्र के शब्दों में कहें तो धरती का गुल्लक भरना चाहिए। तालाबों, कुओं, बावड़ियों को इस वर्षा जल से पुनर्जीवित किया जा सकता है। पुराने जमाने के शासक जनहित के कामों में जलसंरचनाओं के निर्माण को तवज्जो देते थे। भारत में जगह-जगह पुरातात्विक महत्व के तालाब, बावड़ियां, कुएं मिल जाएंगे। मोहम्मद अफजल खान ने लिखा भी है-

‘नाम मंजूर है तो, फैज के असबाब बना, पुल बना चाह, मस्जिद और मेहराब बना।’ यानी यदि आप अपने नाम को कायम रखना चाहते हैं तो लोक कल्याण के लिए चीजें बनाएं; पुल बनाएं, कुएं खुदवायें और मस्जिदों और मेहराबों का निर्माण करें। आज के शासक और समाज के रसूखदार लोग धर्मस्थल बनवाने में तो आगे हैं, विश्वगुरु बनने के लिए स्मार्ट शहर भी बनाने का दावा किया जा रहा है, लेकिन कुओं और तालाबों को खुदवाना उनकी प्राथमिकता में नहीं है। हालांकि दावा ये है कि हम मिशन लाइफ चलाकर लोगों को पर्यावरण के तहत जीना सीखा रहे हैं।

प्रधानमंत्री मोदी की अमेरिका यात्रा में जब उनसे प्रेस कांफ्रेंस में जलवायु परिवर्तन पर सवाल पूछा गया, तो उनका जवाब यही था। श्री मोदी ने कहा था कि हम देख रहे हैं कि प्राकृतिक आपदाओं के कारण जान का नुकसान तो होता ही है, अधोसंरचना का भी नुकसान होता है। इसलिए हमने सीआरआई एक ग्लोबल संस्था को जन्म दिया है, जिससे ये नुकसान कम हो सकें। श्री मोदी ने बताया था कि उन्होंने और यूएन महासचिव ने मिशन लाइफ की भी शुरुआत की है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने भारत को ग्रीन हाइड्रोजन का हब बनाने, सौर ऊर्जा द्वीपीय देशों तक पहुंचाने और कार्बन उत्सर्जन को जीरो करने के प्रयासों के बारे में भी बताया।

जी-20 की बैठक हो या कोई और अंतरराष्ट्रीय समागम, जहां कहीं पर्यावरण संरक्षण की बात आती है, भारत सरकार के बड़े-बड़े दावे सुनाई देने शुरु हो जाते हैं। लेकिन बारिश या गर्मी जरा सा मौसम का मिज़ाज बिगड़ने पर बेमौत मरने वालों के आंकड़े इन दावों की पोल खोल देते हैं। विकास के नाम पर बढ़ते भ्रष्टाचार के कारण हमारे जंगलों, पहाड़ों, नदी-झीलों का जो नुकसान हो रहा है, उस पर अगर सरकार ध्यान देना शुरु कर दे तो फिर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर शब्दों के खेल की जरूरत नहीं पड़ेगी, भारत की तस्वीरें ही दुनिया को सच दिखा देंगी।

(देवेन्द्र सुरजन की फेसबुक वाल से साभार)

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments