-कहो तो कह दूं।
– राजस्थान में नेतृत्व का संकट समय से हल करना होगा
-बृजेश विजयवर्गीय-

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में हार से भाजपा को झटका लगा है। उसके लिए नेतृत्व अपनी समीक्षा करेगा लेकिन यहां स्पष्ट है कि कांग्रेस को बड़ी राहत मिल गई है। हाल ही में हिमाचल के बाद अब कर्नाटक को भाजपा से छीना गया है तो भाजपा को गहरा आत्म मंथन करने की जरूरत है। भ्रष्टाचार, जातिवाद, संप्रदायवाद जो कि राजनीतिक दलों के हथियार बन गए है उन पर भी समीक्षा होगी कि क्या ये मुद्दे राजनीति को प्रभावित कर रहे है। कर्नाटक के ताजा चुनाव में भ्रष्टाचार भी बड़ा मुद्दा रहा और भाजपा का कुशासन भी। भाजपा इन पर अपना बचाव नहीं कर सकी। सत्ता विरोधी लहर को थाम नहीं सकी। जातिगत समीकरणों में इतनी उलझी रही कि भ्रष्टाचार के आरोपी येद्दियुरप्पा को ही कमान सौंपनी पड़ी और जगदीश शेट्ट्ार जैसे नेता छिटक गए। भाजपा हाई कमान ने यहां पर बड़ी चूक कर दी। चुनाव अभियान के अंत में कांग्रेस ने बजरंग दल को प्रतिबंधित करने की चुनावी घोषणा की तो भाजपा ने इसे मुद्दा बनाने का प्रयास किया लेकिन जातिगत जकड़न के आगे यह मुद्दा रंग नहीं चढ़ सका। हालांकि भाजपा को पूरी तरह से डूबने से बचाया तो इसी बजरंगबली वाले प्रकरण ने। सारे तामझाम के बाद भी भाजपा चुनाव हार गई है तो उसे समझना होगा कि सुशासन केवल नारे का विषय नहीं है उसे धरातल पर भी साकार करना होगा। कर्नाटक की भाजपा सरकार इसमें विफल रही है। जहां भाजपा की सरकारें चल रहीं है वहां उत्तर प्रदेश, आसाम को छोड़ कर कहीं भी मुख्यमंत्री लोकप्रिय नहीं है। मध्यप्रदेश में मामा शिवराज भी सरकार को खींचते ही दिख रहे है। हाल ही के नगर निगमों के चुनावों में योगी अदित्यनाथ की सरकार ने भाजपा की लाज रखी तो उसका कारण है कि योगी जो कहते है उसे करने में विश्वास करते है। यही कारण असाम में भी है। भाजपा के प्रदेशों में विशेष कर राजस्थान और मध्यप्रदेश जैसे बडे राज्यों में भी भाजपा इकाईयां प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी पर ही निर्भर है। प्रदेश नेतृत्व जनता में अपनी पैठ नहीं बना पा रहा। राजस्थान में कई बार लगता है कि भाजपा विपक्ष में है या सत्ता में। कांग्रेस नेता सचिन पायलेट भ्रष्टाचार के मुद्दे पर गहलोत सरकार को घेरते हैं तो भाजपा मौन रहती है। संजीवनी और आदर्श कोऑपरेटिव घोटालों पर भी भाजपा मौन धरण किए बैठी है तो लगता है कि जनता की तकलीफों से भाजपा को कोई सरोकार नहीं है। राजस्थान में तो कांग्रेस भाजपा नेताओं की मिलीभगत के चर्चे आम है। इससे दोनों पार्टियों को नुकसान हो रहा है।
हिंदुत्व के विषय पर भी भाजपा केवल बातें बघारने वाली ही साबित हुई। धरातल पर तो भाजपा अप्रसांगिक होती जा रही है। ऐसा नहीं है कि शीर्ष नेतृत्व को इसकी खबर न हो लेकिन वो कुछ कर पाने की स्थिति में नहीं है। हालांकि भाजपा में प्रदेश अध्यक्ष बदले गए है फिर उन्हें अभी खुद को सबित करना है। राज्य में कई बार लगता है कि कांग्रेस भाजपा में नूरा कुश्ती हो रही है। जनता पिस रही है। कांग्रेस सत्ता बचाने के लिए राहत का पिटारा खोल कर बैठी है लेकिन ये राहत हमेशा नहीं मिलने वाली ये भी सच है। भाजपा में सत्ता में आने के लिए कोई उत्सुकता दिखाई नहीं देती जो थोड़ी बहुत सक्रियता है वो खुद को नेता बनाए रखने की कवायद से ज्यादा कुछ नहीं है। प्रदेश में 25 सांसदों की उपलब्धियां गर्व करने वाली नहीं है और 70 से अधिक विधायक होने के बाद भी प्रदेश भाजपा पस्त लगती है। राजनीतिक विश्लेषक राजस्थान में मैच फिक्सिंग जैसी बातें भी करते है। पर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत पुनः सत्ता में वापसी के लिए गंभीर दिख रहे है लेकिन पायलेट के रहते यह कैसे संभव होगा। सवालों के घेरे में है। कमोबेश ऐसी ही हालत भजपा की भी है जो अभी तक मुख्यमंत्री पद का दावेदार तलाश नहीं कर पाई है। जनता का मन टटोलने का प्रयास हो रहा है, योगी जैसा नेता राजस्थान में खोजने का काम चल रहा है। वसुंधरा राजे भी ताल ठोंक रहीं है। कुल मिला कर राजस्थान में अभी घटाटोप ही छाया हुआ है। इस सबका भाजपा काडर पर दुष्प्रभाव तो पड़ ही रहा है।
बात कर्नाटक से चली है तो बता दें कि दल बदल कर बनीं सरकारें जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। अब दूसरा सवाल उठता है कि क्या इसका असर राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में होने वाले आगामी विधान सभा चुनावों एवं लोकसभा चुनाव पर भी होगा तो यह कहना जल्दबाजी होगा। हर राज्य के अलग-अलग समीकरण होते है। प्रदेश के मुद्दे अलग और लोकसभा के अलग होते है। कई बार साबित भी हुआ है। यह मानना कि कर्नाटक के परिणाम अन्य चुनावों में दोहराऐ जा सकते है उचित नहीं होगा।
लेकिन भाजपा की हार चौंकाने वाली है कि जब केंद्र में भाजपा की सत्ता हो। वैसे दक्षिण भारत के राज्यों की प्रवृत्ति है कि केंद्र की सत्ता से इनकी बनती नहीं है। 1977 में भी जब जनता पार्टी उत्त्र भारत में जीती थी दक्षिण के राज्यों में कांग्रेस ही रही। इसी प्रकार जब 1980 के दशक में उत्तर भारत में कांग्रेस या उसकी समर्थक सरकारें रही तो दक्षिण में आंध्र में तेलुगदेशम के एनटी रामाराव, कर्नाटक में जनता पार्टी के रामकृष्ण हेगड़े और तमिलनाडु में एमजी रामचंद्रन की सरकारें रहीं। ताजा परिणाम भाजपा को नई रणनीति अपनाने को मजबूर कर सकते है। क्षेत्रीय छत्रपों को मजबूत किए बिना सिर्फ नरेंद्र मोदी और योगी के भरोसे रहने से ही भाजपा का बेड़ा पार नहीं होने वाला। यू ंतो मोदी भी राजस्थान के नेताओं को सचेत करते हुए कह चुके हैं कि मोदी के भरोसे रहने से काम नहीं चलेगा खुद को साबित करना होगा। कर्नाटक के नताीजों के बाद उम्मीद है कि भाजपा सबक लेगी। नही ंतो निपट जाएगी।
– बृजेश विजयवर्गीय
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं)