
-महेश ओझा, भीलवाड़ा-

(वरिष्ठ पत्रकार, कवि और स्तंभकार)
चेहरा बदलने वाला आलम बदलने वाला
सूबे का फिर से शायद मौसम बदलने वाला
यह कैसी घराघराहट कुर्सी के खिसकने की
चुपके से कोई आकर जाज़म बदलने वाला
वो कह रहा था उसका जादू पड़ा है फ़ीका
तो क्या ये मान लें हम नाज़िम बदलने वाला
डमरू की ताल कमतर बिन तार का तम्बूरा
छिटके हैं कुछ जमूड़े सरगम बदलने वाला
फूंको भले ही मंतर ओ जादुई कलंदर
लगता वज़ीरे आला कौरम बदलने वाला
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