जीत का जज्बा न होना ले डूबा भारतीय हॉकी को

hockey

-आर.के. सिन्हा-

rk sinha, founder sis, former member of rajya sabha, at his residence, for it hindi shoot. phorograph by hardik chhabra.
आर.के. सिन्हा

पिछले रविवार को देश के करोड़ों हॉकी को चाहने वालों का सपना तार-तार हो गया। सबको उम्मीद थी कि 1975 के बाद भारत फिर से हॉकी वर्ल्ड कप को जीतने में कामयाब हो जाएगा। पर यह हो न सका। ओडिशा में खेले जा रहे हॉकी वर्ल्ड कप में न्यूज़ीलैंड ने पेनाल्टी शूट आउट में भारत को हराकर क्वार्टर फ़ाइनल में जगह बना ली और भारत खिताबी दौड़ से बाहर हो गया।

 दरअसल टोक्यो ओलंपिक खेलों में कांस्य पदक जीतने वाली भारतीय टीम से आशा की किरण इसलिए नजर आ रही थीक्योंकिउसका पिछले ओलंपिक खेलों में सराहनीय प्रदर्शन रहा था। कहना होगा कि भारत की महिला और पुरुष हॉकी टीमों ने टोक्यों ओलंपिक खेलों में बेहतर प्रदर्शन किया था। भारत के हॉकी प्रेमियों को एक लंबे अंतराल के बाद इतना शानदार प्रदर्शन देखने को मिला था अपने खिलाड़ियों से। पर वर्तमान वर्ल्ड कप में हमारी हॉकी टीम का खेल बेहद औसत दर्जे का रहा।

खिलाडियों को बाहर करने की वजह क्या थी ?

 यह समझ में नहीं आता कि किस आधार पर और किस समय से ओलम्पिक में कांस्य पदक जितने वाले टीम से पांच-छह खिलाडियों को टीम से बाहर कर दिया गयाकहीं इसमें भ्रष्टाचार का प्रदर्शन तो नहीं हुआअगर नहीं तो ओलंपिक पदक जीतने वाली टीम के लगभग आधे खिलाडियों को बाहर करने की वजह क्या थी।  इस वर्ल्ड कप के शुरू होने से पहले 1975 में अंतिम बार वर्ल्ड चैंपियन बनी भारतीय टीम के गोल कीपर अशोक दीवान ने राउरकेला रवाना होने से पहले कहा था कि उन्हें उम्मीद है कि हम चैंपियन बनेंगे। उनके साथ दादा ध्यानचंद के पुत्र और 1975 के वर्ल्ड कप के फाइनल मैच में पाकिस्तान पर विजयी गोल दागने वाले अशोक कुमार भी थे। पर उम्मीदें और प्रार्थनाएं काम नहीं आईं। काम कैसे आतीं। हमने कतई स्तरीय खेल नहीं खेला।

लचर प्रदर्शन

एक बात तो कहना होगा कि भारत जब हॉकी में ओलंपिक या विश्व चैम्पियन हुआ करता था तब भारत के पास विदेशी टीमों के मुक़ाबले अच्छी सुख सुविधाएं बहुत कम हुआ करती थीं। हमारे पास सीमित साधन थे लेकिन खिलाड़ियों की कला दमख़म और जज़्बा आला हुआ करता थाआज ग्लैमरपैसासबकुछ होते हुये भी हमारे खिलाड़ियों में जीत का जज़्बे ओर टेक्निक की कमी है। इस वर्ल्ड कप में हमारी हॉकी टीम ने कोई उल्लेखनीय प्रदर्शन नहीं किया। यकीन मानिए कि वेल्स के ख़िलाफ़ लचर प्रदर्शन से ही भारतीय हॉकी प्रेमियों में निराशा छा गई थी। भारतीय टीम जैसे-तैसे प्री क्वार्टर फाइनल में आ गई। प्री- क्वार्टर फाइल मैच में अच्छी खासी बढ़त के बावजूद हम हार गए। हमारा खेल बेहद सुस्त और रक्षात्मक रहा। कप्तान हरमनप्रीत सिंह का नेतृत्व भी दोयम दर्जे का ही रहा। न अग्रिम पंक्ति में कोई सामंजस्य और न रक्षापंक्ति में कोई तालमेल। सब बस खानापूर्ति करने और टाइम बर्बाद करने के लिए ही खेल रहे थे हमारे खिलाड़ी। न्यूजीलैंड हम से बेहतर खेली और इसीलिये जीती। दुख होता है जब बरसों बाद हॉकी को ऊपर उठाने की कोशिश करने वालों को‌ मायूस होना पड़ता है।

क्या हमारी इस टीम में वर्ल्ड कप जीतने का जज्बा था?

 काशहमारी टीम ने मलेशिया में 1975 में खेली गई विश्व कप हॉकी चैंपियनशिप के सेमी फाइनल तथा फाइनल मैचों की टीवी रिकार्डिंग को ही देख लिया होता। दादा ध्यानचंद के सुपुत्र अशोक कुमार ने ही 15 मार्च 1975 को पाकिस्तान के खिलाफ लाजवाब फील्ड गोल दागकर विजय दिलवाई थी। उस गोल को भारत के लाखों हॉकी प्रेमी अब भी याद करते हैं। पहला गोल सुरजीत सिंह ने किया था। अशोक कुमार 1971 और 1973 के विश्व कप में भाग लेने वाली भारतीय टीमों में भी थे। भारत का दोनों दफा बेहतरीन प्रदर्शन रहा था। भारत को 1971 में कांस्य और 1973 में चांदी का पदक जीतने में सफलता मिली थी। पर देश निराश था क्योंकि सबको स्वर्ण पदक की उम्मीद थी। एक बार अशोक कुमार बता रहे थे कि जब भारतीय टीम 1975 का वर्ल्ड कप खेलने मलेशिया पहुंची तो वहां पर बसे हुए हजारों भारतवंशी हमें अभ्यास करते हुए देखने के लिए आते थे। वे सब हमें चीयर कर रहे थे। तब सारी टीम हर हालत में चैंपिंयन बनने का संकल्प लेकर ही गई थी। भारत ने विश्व कप जीतकर सारी दुनिया में तहलका मच दिया था। भारत ने एक तरह से उन ज्ञानियों को गलत साबित करा था जिन्होंने भविष्यवाणी कर दी थी कि हम कभी विश्व विजेता बन ही नहीं सकते। क्या हमारी इस टीम में इस बार भी वर्ल्ड कप जीतने का जज्बा था?

1975 की टीम के खिलाड़ियों से कुछ नहीं सीखा

 भारतीय टीम के वर्ल्ड कप के सभी मैचों के प्रदर्शन को देखकर साफ लग रहा था कि इस टीम ने 1975 की टीम के खिलाड़ियों से कुछ नहीं सीखा। इनमें जीतने के लिए जरूरी दमखम ही नहीं था। 1975 की विश्व विजयी टीम में फुल बैक असलम शेर खान भी थे। विरोधी टीम की आक्रामक पंक्ति के लिए गठीले बदन वाले असलम को छका कर के आगे बढ़ना लगभग असंभव था। उन्होंने सेमी फाइनल मैच में मेजबान मलेशिया के खिलाफ मैच के अंतिम पलों में बराबरी का गोल किया था। भारत 1-2 से मैच में पिछड़ रहा था। तब भारत को एक पेनल्टी कॉनर्र मिला। कुआलालंपुर के मर्डेका स्टेडियम में हजारों भारतवंशी ईश्वर से प्रार्थना कर रहे थे कि भारत मैच में किसी तरह से बराबरी कर ले। उस मैच की आकाशवाणी से कमेंट्री कर रहे थे जसदेव सिंह। वे बताते थे कि जब भारत को पेनल्टी शॉट मिला। गोविंदा के शॉट को अजीतपाल ने रोका और फिर रहा अयूब शॉट असलम शेर खान का। उनके शॉट को मलेशिया के खिलाड़ी रोकने में असफल रहे। भारत ने बराबरी करने के बाद एक और गोल करके मैच जीता और फाइनल में प्रवेश किया।

कोच और पदाधिकारी या तो व्यस्त थे या मस्त थे

मुझे कभी-कभी लगता है कि खेलों में पैसे की बरसात ने खेलों की पहली वाली पवित्रता को खत्म कर दिया है। पहले खिलाड़ी देश के सम्मान के लिए जीतने के लिए जान लगा दिया करते थे। दादा ध्यानचंद के परिवार वालों के पास उनका अंतिम दिनों में श्रेष्ठ इलाज करवाने तक के लिए पैसा नहीं था। तब राजधानी के शिवाजी स्टेडियम में एक बेनिफिट हॉकी मैच हुआ था। पर उसी दौरान उनका  एम्स में निधन हो गया था। इस तरह की न जाने कितनी कहानियां यहां-वहां बिखरी पड़ी हुईं हैं। कुल मिलाकर बात यह है कि जीत जज्बे से होती है। उसका हमारे खिलाड़ियों में इसका अभाव था। जज्बे का जुनून फूंकते हैं कोच और पदाधिकारी वे या तो व्यस्त थे या मस्त थे।

(लेखक वरिष्ठ संपादकस्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)

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Neelam
Neelam
2 years ago

शायद अपने देश में ही यह अधिकतर लोगों को पता नहीं होगा कि कहीं हाकी का वर्ल्ड कप भी हो रहा है।मीडिया में कोई भी न्यूज नहीं दिखाई पड़ी।एक तरफ क्रिकेट का उत्साह दूसरी तरफ हाकी के लिए इतनी उदासीनता।बहुत कुछ बयान करती यह पोस्ट।