
-डॉ. विवेक कुमार मिश्र-
डॉ. विवेक कुमार मिश्र
आकाश से बिन मौसम आफत की बारिश हो रही है । सब अपने-अपने ढंग से परेशान और हैरान हैं । रहे भी क्यों नहीं फसलें सारी की सारी खेत में पड़ी हैं । नींद भी नहीं आती । रात । कड़कती बिजली और कब टीन टप्पर तड़ तड़ कर तड़प उठे कह नहीं सकते रह रह कर बिजली चमकती और पूरे आसमान में गड़गड़ाहट मच जाती । खेत में फसलें तैयार हैं और इधर हाहाकारी बारिश कब हवा चल पड़े कब खड़ी फसलें आड़ी पड़ जाएं कह नहीं सकते। हर बात समय पर ही ठीक लगती है । बारिश के मौसम में सब बारिश का स्वागत करते हैं । गीत गाते हैं खुश होते हैं और आज यह बारिश बस रुला रही है । काठ का करेजा रखने वाला किसान भी अंततः रो पड़ता है फसलों को देख आंखों में आसूं यूं आ जाते हैं कि बिना कुछ कहे ही कोर से किनारे पर लग जाते हैं । हो भी क्यों नहीं अब आखिरी वक्त में बारिश आ रही है जब फसलें खेत से खलिहान और घर की ओर आने के लिए तैयार हैं तो ये कहां से बारिश आ गई । कोई भी समझ नहीं पा रहा है । सब बस आसमान की ओर देख रहे हैं । कोस रहे हैं कि क्या करें किससे कहें कोई कुछ नहीं कर सकता । समय पर बारिश होती तो कुछ बात भी बनती । अब कोई जरूरत नहीं तो क्या बारिश । यह तो आफत है साहब । जरूरत हो तो एक बूंद भी गिरे नहीं और अब समय निकल जाने पर छप्पर फ़ाड़ बारिश हो रही है । इसे बारिश कहने की जगह आफत की बारिश कहें तो ज्यादा ठीक लगता । क्या किसान क्या पशुपालक सब हैरान-परेशान इस बारिश में परेशान सिर पर हाथ रखे हैं । इसके आगे अपने को बेबस पा रहे हैं । कुछ करते भी नहीं बन रहा । सब बस एक ही बात कर रहे हैं कि कोई उपाय हो तो इस बारिश को रोका जाए । कोई उपाय नहीं सूझता तो आसमान की ओर मुंह कर कालूराम बस इतना ही कहते हैं कि दई ! का कुछ पता नहीं है । देवता भी न जाने कहां सो गया है । किसान की कोई सुनने वाला नहीं है । जब भगवान ही नहीं सुन रहा तो किससे कहें ? अपने दुख दर्द । पूरा का पूरा खेत इस बारिश में डूब रहे हैं । यह हवा यह बवंडर और तूफान ये ओला / पाथर सब तो किसान के ही माथे हैं । बिचारा किसान क्या करें ? किससे कहें ? कैसे अपने दुःख सहे । कोई तो उपाय नहीं है पर यहीं और इसी रास्ते अपने खेत खलिहान में गीले पांव किसान इस बारिश और हालात को देखते हुए जहां खून के आंसू रो रहा है । वहीं हौसला भी रख रहा है कि खेत और आसमान और ऊपर वाले के सहारे ही तो किसान रहता आया है । आगे भी रह लेगा । जैसे तैसे यह दिन भी निकलेगा । दई ! हम किसान पर कुछ दया करो । बरसो पर बेमौसम तो मत बरसो । बताकर बरसो तो हम कुछ जतन कर लेते । कुछ भविष्य का लेखा भी लिख लेते । पर तुम तो धड़ाम से आकर हमारे ऊपर ऐसे गिरते हो कि कोई और काम ही ना हो । पर जो भी हो अब बरस रहे हो तो यह भी सुन लो । जो भी हो जैसे भी हो हम भी छाती को पक्की कर तुम्हारे हर घात प्रतिघात को सहते हुए पक्के हो चुके हैं । तुम कैसे भी आओ हम टूटेंगे नहीं और यही और इसी तरह रहेंगे । देखना एक दिन हम इस धरती के साथ अपनी फसलों के साथ खेत पर खिलखिलाएंगे ।
डॉ. विवेक कुमार मिश्र
सह आचार्य हिंदी
राजकीय कला महाविद्यालय कोटा
किसान की पीड़ा व हालात से बराबर दो- दो हाथ करने की बात के साथ रुठी प्रकृति के बावजूद खेतों में माटी की सुगंध के साथ फिर से फसलें लहलहाते की उमंग के साथ किसान पर स्पष्ट सटीक बात बेबाक।
जी । किसान लगातार अपने साहस के साथ संघर्ष करता ही आ रहा है । कैसे भी हालात हों जिंदगी बहाना ढूंढ लेती है ।