– कांग्रेस आलाकमान की अशोक गहलोत खेमे के खिलाफ सतही कार्यवाही, घाटे में फिर भी सचिन क्योंकि दलीय राजनीति में उनके कट्टर समर्थक भी फ़ाटक बाहर
-कृष्ण बलदेव हाडा-

राजस्थान में सचिन पायलट समर्थकों को ‘खुश’ हो जाना चाहिए कि आखिरकार पार्टी आलाकमान ने उनकी ‘सुन’ ली और अशोक गहलोत सरकार के दो वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों सहित एक निगम के अध्यक्ष और मुख्यमंत्री के विश्वस्त राजनीतिक सलाहकार के खिलाफ कार्रवाई कर ही दी जिन्होंने पिछले साल सितंबर माह में ‘बगावत’ करके उनके नेता सचिन को मुख्यमंत्री बनाने की कोशिश को नाकाम करने में अहम भूमिका निभाई थी।
हालांकि उनके अपने नेता सचिन पायलट तो जहर का कड़वा घूंट पीकर बैठे होंगे क्योंकि उन्हें यह अच्छे से समझ में आ रहा होगा कि ‘विद्रोही नेताओं’ के खिलाफ सतही कार्यवाही करके आलाकमान ने न केवल उन्हें ठेंगा दिखाया है बल्कि अशोक गहलोत को कम से कम इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव तक मुख्यमंत्री बने रहने के प्रति अपनी मूक सहमति देो दी है और रायपुर (छत्तीसगढ़) में कांग्रेस के अधिवेशन में मंथन के बाद के बाद अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री पद से हटाकर उन्हें मुख्यमंत्री बनाने के मंसूबे पर पानी फेर सा दिया है क्योंकि हाल ही में उन्होंने एक अंग्रेजी समाचार एजेंसी को दिए साक्षात्कार में यह कहा था कि सितंबर माह में कांग्रेस की समानांतर विधायक दल की बैठक बुलाने वाले नेताओं के खिलाफ कार्रवाई में देरी क्यों हो रही है और यह देरी क्यों हो रही रही है, यह समझ में नहीं आती? अब जबकि आलाकमान ने कार्यवाही की है कि शायद यह भी उनके समर्थकों के समझ में नहीं आने वाली।
पार्टी आलाकमान ने कैबिनेट मंत्री शांति धारीवाल, महेश जोशी और राजस्थान पर्यटन निगम के अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह राठौड़ को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी से हटाकर गहलोत खेमे को कोई बड़ा झटका दिया हो, ऐसा दरअसल है नही बल्कि इससे इसमें भी सचिन पायलट घाटे में रहे हैं क्योंकि पार्टी आलाकमान ने धारीवाल, जोशी, राठौड़ पर कार्यवाही करने के बहाने खुद सचिन पायलट के खास सिपहसालार वरिष्ठ कैबिनेट मंत्री और जाट राजनीति के कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेता विश्वेंद्र सिंह सहित गाहे-बगाहे सरकार में रहकर भी मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और उनके विश्वस्त सहयोगी मंत्री शांति धारीवाल के खिलाफ अनर्गल प्रलाप करने वाले मंत्री राजेंद्र गुढ़ा, रमेश मीणा भी शामिल है, जिन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी से फाटक बाहर कर दिया गया है जबकि अशोक गहलोत के कई विश्वस्त सहयोगी-साथी जैसे प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा, अकसर संकटमोचक बनने वाले विधानसभा अध्यक्ष सी पी जोशी, राजस्थान क्रिकेट बोर्ड के अध्यक्ष एवं उनके पुत्र वैभव गहलोत भी शामिल है।
रहा सवाल शांति धारीवाल, महेश जोशी और राजस्थान पर्यटन निगम के अध्यक्ष धर्मेंद्र सिंह राठौड़ का तो सरकार में उनके पद तो अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री रहते हुए वैसे ही सुरक्षित रहने वाले हैं और सत्ता की राजनीति को समझने वाले जानकार लोगे अच्छे से जानते हैं कि जब बात सत्ता और वर्चस्व की है तो दलगत राजनीति में पार्टी का पद हासिल करने की तुलना में मुख्यमंत्री या मुख्यमंत्री की कैबिनेट में महत्वपूर्ण मंत्री बने रहना कितना मुफीद होता है।
इसे इस ताजा घटनाक्रम से भी समझा जा सकता है कि अशोक गहलोत ने अखिल भारतीय स्तर के राजनीति दल होते हुये भी कांग्रेस जैसी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने के सभी द्वार खुले होने और गांधी परिवार का वरदहस्त हासिल होने के बावजूद उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर अध्यक्ष बनकर राष्ट्रीय राजनीति में कूदने के बजाय एक सूबे राजस्थान का मुख्यमंत्री बने रहकर राज्य की राजनीति में ही अपना दबदबा कायम रखने में भलाईसमझी। इसके अलावा अच्छे-खासे कैबिनेट मंत्री के पद से हटाकर विधानसभा चुनाव के पहले पड़ोसी राज्य गुजरात में पार्टी का प्रभारी बनाए जाने और उसके बाद गुजरात में पार्टी के हश्र के उपरांत अपनी मौजूदा स्थिति को लेकर अपनी आंतरिक पीड़ा को रघु शर्मा से अधिक कौन समझ सकता है क्योंकि चुनाव के मुहाने पर खड़े भारतीय जनता पार्टी के अति प्रभाव क्षेत्र वाले गुजरात जैसे राज्य का प्रभारी बनाए जाने के कारण वहां पर कुछ करने लायक अपनी सीमा-क्षमता वे खुद बहुत अच्छे से जानते रहे होंगे।
भारतीय जनता पार्टी के नेता भी इसे इस दृष्टि से अच्छे से समझ सकते हैं कि केंद्र में जल शक्ति मंत्रालय में मंत्री जैसे महत्वपूर्ण पद पर बने रहने के बावजूद गजेंद्र सिंह शेखावत राजस्थान के अगले विधानसभा चुनाव से पहले श्रीमती वसुंधरा राजे के नैसर्गिक राजनीतिक दावे को खारिज करके पार्टी का मुख्यमंत्री पद को के लिए पार्टी का चेहरा बनने के लिए किस तरह से ‘छटपटा’ रहे हैं। वैसे भी देश की राजनीति के इतिहास में ऎसे दर्जनों उदाहरण मौजूद हैं जब केंद्रीय मंत्रिमंडल छोड़कर नेताओं ने किसी राज्य का मुख्यमंत्री बनना ज्यादा उचित समझा है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं। यह उनके निजी विचार हैं)