संस्कृति और लोक कलाकारों को मिले प्रश्रय तभी सार्थक हैं लोक उत्सव

बूंदी उत्सव जैसे आयोजन जनता को संस्कृति के एक सूत्र में पुरोने के साथ मूलतः लोक कला और कलाकारों को प्रश्रय देने के मकसद से आयोजित किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि बूंदी उत्सव ही पहला प्रयास हो। इससे पूर्व कोटा में भी हाडोती उत्सव का सफल आयोजन किया जा चुका है। दशहरा मेला पर रावण दहन के दिन परम्पराओं का निर्वहन होता है। लोक कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देते हैं।

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फोटो एएच जैदी

-ए एच जैदी-

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एएच जैदी

27वें बूंदी उत्सव का आज आगाज हो गया। बूंदी उत्सव जन भागीदारी की एक मिसाल है इसलिए कोरोना काल की परेशानियों को छोड इसका शानदार आयोजन चर्चा का विषय रहा है। तीन दिवसीय यह आयोजन लोक संस्कृति के प्रदर्शन में अग्रणी रहा है इसी वजह से हाडोती संभाग में सर्वाधिक पर्यटक भी बूंदी में ही आते हैं। हालांकि बूंदी भले ही आबादी, विकास और बसावट की वजह से कोटा जैसे शहरों के मुकाबले बहुत छोटा हो लेकिन अपनी पुरा संपदा की वजह से बहुत आगे है। बूंदी उत्सव जैसे आयोजन जनता को संस्कृति के एक सूत्र में पुरोने के साथ मूलतः लोक कला और कलाकारों को प्रश्रय देने के मकसद से आयोजित किए जाते हैं। ऐसा नहीं है कि बूंदी उत्सव ही पहला प्रयास हो। इससे पूर्व कोटा में भी हाडोती उत्सव का सफल आयोजन किया जा चुका है। दशहरा मेला पर रावण दहन के दिन परम्पराओं का निर्वहन होता है। लोक कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देते हैं। लेकिन मेलों के भव्य आयोजन के बावजूद लोक कला और परंपरागत कलाकारों को प्रश्रय पर उतना ध्यान नहीं दिया जा रहा जितना इन्हें पोषित किए जाने के लिए जरूरी है। यही कारण है कि धीरे-धीरे इसमें लगातार कमी आती जा रही है। मेलों में स्थानीय संस्कृति की झलक दिखाई जरूर जाती है लेकिन वास्तव में यह मूल कलाकारों के हाथों से छिनती जा रही है। मूल कलाकार स्पर्धा की दौड में कहीं पीछे छूटते जा रहे हैं।

फोटो एएच जैदी

इसका कारण स्थानीय लोक कलाकारों की जगह इवेन्ट करवाने वाले शहरी युवाओं को वैसी वेश भूषा पहनकर पेश कर रहे हैं। इनमें परंपरागत वाद्य यंत्रों के बजाय इलेक्टोनिक यंत्रों का प्रयोग कर शोर शराबा अधिक हो रहा है। लोक कलाकारों का कहना है कि इवेंट के जरिए आने वाले लोग हम लोगो का शोषण कर रहे हैं। उदाहरण देख लीजिए नाम सहरिया नृत्य यानी आदिवासियों का परंपरागत नृत्य लेकिन इसे निभाने वाले कलाकारों को देखिए तो एक भी सहरिया या इस परंपरा से पारंगत होकर निकला कलाकार नहीं मिलेगा। अधिकांश कलाकार पेशेवर नृत्य संस्थानों से पारंगत होकर आते हैं और उनका नृत्य संयोजन भी पेशेवर कोरियाग्राफर करते हैं। ऐसे में विचारणीय यह है कि पेशेवर कलाकारों में वह अल्हडपन कैसे नजर आएगा जो मूल सहरिया नर्तक में दिखता है। यहीं से वास्तविक संस्कृति की उपेक्षा का सिलसिला शुरू होता है।
जैसे सहरिया नृत्य वाले लोग शहरी होते है। अब आप देखिए डीजे ओर इलेक्टोनिक वाद्ययंत्रों का दुष्प्रभाव यह है कि बून्दी के आलोद में मात्र एक मशक बैंड बचा है। जबकि कान में मिठास घोलने वाले इस वाद्ययंत्र के लिए और कलाकार तैयार किए जाने की जरुरत है। गुर्जर समाज की वजह से अलगोजा अभी प्रचलन में है लेकिन इसके लिए जिस स्तर की साधना की जरुरत है वैसे करने वाले बहुत कम हैं जबकि कोटा में तेजाजी मेला हो या दशहरा मेला अथवा बूंदी की तीज का मेला हर ओर अलगोजा का मधुर संगीत गंूजता रहता था। इसका कारण इसकी धुन और इसके प्रति गुर्जर समाज का समर्पण रहा। अलगोजा के बगैर तेजाजी उत्सव अधुरा है। जिस प्रकार अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त सपेरा नृत्यांगना गुलाबो ने अपने पृरे परिवार और कालबेलिया समाज के युवाओ को कालबेलिया नृत्य से जोडने का सराहनीय प्रयास किया है वैसा ही अन्य परंपरागत कलाकारों को भी करना होगा।

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एक समय मांड गायन परंपरा थी। लेकिन अब इस कठिन और मेहनत तथा समय मांगने वाली इस गायन को अपनाने वाली मांड गायिकाएं बहुत कम रह गई हैं। हमारे क्षेत्र में ही चांचौड़ा गांव में भी कई चकरी नृत्यांगनाएं है। इन्होंने अपनी संस्कृति को जिंदा रखा है। लेकिन अभावों में यह कितने दिन तक इसे बनाए रख सकेंगी।
गुलाबो की शिष्या कालबेलिया नृत्य सिख कर अमेरिका गई। उन्होंने इस नृत्य से विदेशियों को परिचित कराया। हमारे कलाकारों को भी यही करना होगा तभी लोक संस्कृति, संगीत और कलाएं बचेंगी। इन लोक उत्सवों का आयोजन भी तभी सफल रहेगा। अन्यथा यह मेले केवल भीड और सामान्य मनोरंजन का माध्यम बन कर रह जाएंगे। कोटा का दशहरा मेला इसका एक उदाहरण है। कभी यहां के कवि सम्मेलन, मुशायरा और सांस्कृतिक कार्यक्रमों की दूर तलक धूम थी। कथक और शास्त्रीय गायन और उदयपुर सांस्कृतिक केन्द्र तक के लोक कलाकार आते थे लेकिन अब देखिए क्या हाल है। यह मेला केवल चाट पकोडी और झूलों के लिए ही रह गया है। आप मेले में जाइये रंगमंच पर कार्यक्रमों में कोई दम नहीं है इसलिए दर्शकों का टोटा रहता है। जो होते हैं उनमें बडी संख्या उनकी होती है जो घूमकर थकने के बाद आराम करने के लिए कुछ देर बैठ जाते हैं जबकि फूड जोन और झूले के इलाके में पैर धरने की जगह नहीं मिलती। यह हमें तय करना है कि कान फोडू संगीत और टीवी, इंटरनेट पर चौबीस घंटे दिखाई देने वाले कार्यक्रमों को मनोरंजन का साधन बनाना है अथवा अपनी माटी की सुगंध से रूबरू कराने वाले कलाकारों के माध्यम से सुकून के दो पल बिताने हैं।

(लेखक नेचर एवं आर्ट प्रमोटर तथा ख्यातनाम फोटोग्राफर हैं)

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Neelam
Neelam
2 years ago

अपनी गरिमामयी लोक संस्कृति पर आधुनिक सस्ते मनोरंजन का दुष्प्रभाव।

श्रीराम पाण्डेय कोटा
श्रीराम पाण्डेय कोटा
2 years ago

आज की पीढ़ी यूज एण्ड थ्रो की तरह लोक कला, लोक कलाकारों,लोक संस्कृति तथा परंपरागत वाद्ययंत्र बजाने वाले उस्तादों को समझती है, इसलिए हमारी इन विधाओं का धीरे धीरे पतन होता जा रहा है. इन विधाओं से संबंधित कलाकारों की रोज़ी रोटी की समस्या भी आड़े हाथों आ रही है . भारतीय संस्कृति की इस प्राचीन विरासत को जीवित रखने की नितांत आवश्यकता है ताकि विदेशी पर्यटकों को आकर्षित किया जा सके और पर्यटन उद्योग फलफूल सके.