-लक्ष्मण सिंह-

इक जुनूँ इश्क का नायाब है मेरे अन्दर
झाँक कर देख ले महताब है मेरे अन्दर
हर सबब सीख गए हम तो ठोकर खा के
ग़म डुबोने हैं तो गिर्दाब है मेरे अन्दर
चश्म में अश्क की मुझे जरूरत नहीं
दिल में बहने को ये सैलाब है मेरे अन्दर
इश्के अहसास बहा दिल में तेरे दरिया सा
वस्ल को दिल मेरा बेताब है मेरे अन्दर
झूठ खन्जर से जियादा बुरा है उल्फ़त में
जख़्म इसके ही तो शादाब है मेरे अन्दर
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