-साइबेरिया (रूस) से उड़कर मेरे आंगन में पंख फैलाते सारस ने मुझे विश्व में अनूठी पहचान दिलाई
-वर्षाकाल में फूलों की सुगंध से मेरा पूरा परिसर महक उठता है
-शीतकाल में मेरा सौन्दर्य देखते ही बनता है
-राजेश खंडेलवाल-
भरतपुर। पग-पग पर कलरव करते खग और जैव विविधताओं से ओतप्रोत कण-कण मेरी शौहरत को बयां करते हैं। परिन्दों के लिए मेरा आंगन सबसे सुरक्षित स्थल है, जिससे मुझे भी स्वर्गानुभूति होती है पर पहले इनके शिकार का गम भी मैंने कम नहीं सहा। सात समन्दर पार साइबेरिया (रूस) से उड़कर मेरे आंगन में पंख फैलाते सारस ने मुझे विश्व में अनूठी पहचान दिलाई पर अब इनका विलुप्त होना मुझे खूब सालता है। उद्भव ही नहीं, मेरा नामकरण भी रोचकता से लबरेज है। मौसम के अनुरूप मेरा रंगरूप भी बदलता रहता है। वर्षाकाल में बादलों की गर्जना के बीच फूलों की सुगंध से मेरा पूरा परिसर महक उठता है तो शीतकाल में मेरा सौन्दर्य देखते ही बनता है तभी तो देश-दुनिया से मुझे निहारने के लिए आने वाले पर्यटकों की चहलकदमी होने लगती है, जो सर्दी के साथ बढऩे लगती है। बासंती पतझड़ भी खूब लुभाता है, पर गर्मियों में ना तो चिडिय़ों की चहचहाहट सुनाई पड़ती है और ना ही पदचापों से उड़ती धूल दिखती है।
चार सौ प्रजाति के हजारों पखेरू प्रवास पर आते हैं
लगभग 29 वर्ग किलोमीटर में फैला मैं ऐसा सैरगाह हूं, जहां दुनियाभर से करीब 4 सौ प्रजाति के हजारों पखेरू प्रवास पर आते हैं, जिनकी अठखेलियों से मेरा परिसर चहचहाने लगता है। कौतुहल से भरे ये अद्भुत नजारे देश-दुनिया से आने वाले हर किसी को लुभाते हैं, जिनसे मैं शोधजनक ही नहीं, रोजगारपरक भी बना। मैं वन्यजीव प्रेम, प्रकृति और आस्था का अनूठा संगम स्थल ही नहीं, औषधीय पौधों से भरपूर भी हूं। मेरे अहाते में पहले घना जंगल हुआ करता था, जिससे मैं घना कहलाया पर अब मुझे केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान के नाम से जाना और पहचाना जाता है। भू-भाग मेरा निचला जरूर रहा पर मेरे यहां प्रवासी गगनचरों ने ऊंची उड़ान भी खूब भरी है, तभी तो निचला भू-भाग अभिशाप से वरदान बना। अतिवृष्टि या बाढ़ जलभराव की वजह बनी तो मेरा परिसर दलदलयुक्त रहने लगा, जो शनै:-शनै: नभचरों को लुभाने लगा। फिर मुझे राजघराने के अतिथियों के लिए आखेटस्थल बना दिया गया।
वक्त बदलता है तो सब बदल जाता है
रियासतकाल में राजा-महाराजा और अंग्रेज हर दिन मेरे क्षेत्र में ज्यादातर बत्तखों का शिकार करने लगे। इनके अलावा चीतल (हिरण) और जंगली सुअरों का भी शिकार होता रहा। पहले पटाखे फोड़ते और उनकी आवाज से बत्तखें उड़ती तो उन पर निशाना साधते, जो मुझे भी तीर की माफिक चुभते पर कुछ नहीं कर पाने का मलाल अवश्य है। वर्ष 1916 में जब लार्ड चेम्सफोर्ड ने एक ही दिन में 4206 बत्तखों को ढेर किया तो मुझ पर ऐसी कालिख पुती, जो आज भी अमिट है पर वक्त बदलता है तो सब बदल जाता है। मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ और फिर वही शिकारगाह परिन्दों के लिए सबसे सुरक्षित स्थल बना। वेट लैण्ड, ग्रास लैण्ड व वुड लैण्ड की प्रचुर उपलब्धता के बीच तमाम चुनौतियों से जूझते हुए मैंने वल्र्ड हेरिटेज साइट तक का सफर तय किया। वर्ष 1981 में उच्च स्तरीय संरक्षण दर्जा प्राप्त राष्ट्रीय पार्क के रूप में स्थापित हुआ और वर्ष 1985 में मुझे विश्व विरासत स्थल का दर्जा मिला।
जैव विविधता के लिए भी दुनिया में अनूठा उदाहरण
मेरे परिसर में पहले नदियों का भरपूर पानी आता। उसमें मछलियां व भोजन भी प्रचुर मात्रा में आता, जिनसे देशी-विदेशी पक्षियों की जठराग्नि शांत होती। पहले तो इतने ज्यादा नभचर आते कि उनकी उड़ान के समय गगन काला-काला नजर आता। हालांकि कुछ वर्षों पहले तो मेरा भी हलक सूखने लगा, पर तब जिम्मेदारों ने हल भी निकाला। चुनौतियां तो मैंने शुरूआत से खूब झेली हैं, पर कोरोना ने तो मुझे भी ऐसा असहनीय दर्द दिया, जो आज भी कसकता है। करीब 3 माह कैद जैसी सजा ही नहीं भुगती, बल्कि मेरे अपनों में होटल संचालक, गाइड, रिक्शा चालकों की रोजी-रोटी तक छिन गई। उस दौर में ऐसी वीरानी भी छाई कि मुझे देखने और मेरी पीड़ा को महसूस करने वालों की संख्या भी शून्य पर जा सिमटी। मैं केवल पक्षियों के लिए ही नहीं, बल्कि जैव विविधता के लिए भी दुनिया में अनूठा उदाहरण हूं। राजस्थान प्रदेश में पाए जाने वाले पक्षियों, जीवों, तितलियों आदि की कुल प्रजातियों की आधी से ज्यादा प्रजातियां मेरे ही परिसर में बसर करती हैं। प्रदेश में परिन्दों की 510 प्रजातियां हैं, जिनमें से 380 तरह के पक्षी मेरे परिसर में चहचहाते हैं। 40 तरह के रेंगने वाले जीवों में से 25 से ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं। तितलियों की 125 में से 80 प्रजातियां हैं। मेढ़क की 14 में से 9 और कछुआ की 10 में से 8 प्रजातियां मेरे भू-भाग पर उपलब्ध हैं। मेरी मिट्टी बलुई नम होने से कदम्ब खूब फल-फूलता है, जिनसे मैं लकदक भी रहा।
डॉ. सालिम अली ने किया शोध
मेरी सुंदरता के साथ ही चहकते परिंदों को निहारने आई देश-विदेश की हस्तियों का भी उनसे खासा लगाव रहा। मुझे खुशी तो तब हुई जब कुछ मेहमान मेरे आंगन से कई पौधे अपने साथ ले गए। वर्ष 1980 में ब्रिटेन के प्रिंस चाल्र्स, 1982 में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी और वर्ष 1984 में देश के बर्ड मैन डॉ. सालिम अली व कैट मैन पीटर जैक्सन ने मेरे परिसर में पौधे रोपे, जो वृक्ष बनकर लहलहा रहे हैं। डॉ. सालिम अली ने मेरे आंगन में चहचहाने वाले पक्षियों पर काफी समय तक शोध किया। कई संस्थाओं ने भी उनकी प्रजातियों पर शोध किए, जिससे मेरी अंतरराष्ट्रीय पहचान बनी।
200 से अधिक प्रजाति के औषधीय पौधे
मैं औषधीय गुणों की ऐसी खान हूं, जहां 200 से अधिक प्रजाति के औषधीय पौधे पाए जाते हैं। इनमें कई तो दुर्लभ किस्म के पौधे हैं। आयुर्वेद चिकित्सक भी मेरी गुणवत्ता से मोहित हैं। मेरे भण्डार में उपलब्ध औषधीय पौधे शारीरिक दुर्बलता को दूर ही नहीं, बल्कि कई बीमारियों का इलाज करने में सक्षम हैं। मेरे परिसर में करीब 350 वर्ष पहले महाराजा सूरजमल ने शिव मंदिर की स्थापना की। मेरा परिसर पहले घना जंगल रहा, जहां आसपास के ग्रामीण पशु चराते। एक पशुपालक की गाय जंगल में केले के एक पेड़ के नीचे नियमित खड़ी होती और उसके थनों से स्वत: ही दूध निकलने लगता। एक दिन किसान ने गाय का पीछा किया तो यह देख वह अचंभित रह गया। जब उसने इसकी जानकारी महाराजा सूरजमल को दी तो उन्होंने केले के पेड़ के नीचे की जगह को खुदवाया, जहां प्राचीन शिवलिंग निकला। खुदाई के बाद भी शिवलिंग को हटाया नहीं जा सका तो वहीं केवलादेव शिव मंदिर का निर्माण कराया। उसके ही नाम पर मेरा नाम केवलादेव राष्ट्रीय पक्षी उद्यान पड़ा। यह मंदिर प्रवेश द्वार से 5 किमी अंदर है और इसे चमत्कारी भी माना जाता है। इसके अलावा घने जंगल के बीच ही सीताराम जी का मंदिर वन्यजीव प्रेम, प्रकृति और आस्था का अनूठा संगम स्थल है। मंदिर में कौतुहल भरा नजारा देखने को तब मिलता है, जब आरती के समय भक्त ही नहीं, जंगल से निकल कर दर्जनों हिरण भी एकत्र होते हैं और आरती के बाद जंगल लौट जाते हैं। जीव सेवा और घायल वन्यजीवों के उपचार से मेरे यहां आस्था, भक्ति और प्रेम की बयार बहती रहती है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं)
(मन दर्पण पुस्तक से साभार)