-जब घाट-घाट गंगोत्री था-मान लेते थे हर नदी माँ गंगा का ही रूप है…

गाँवों में अब न ग्वाल रहे और न पंछी । चिड़िया दुर्लभ हो गई है। कुएं गंगा के घाट नहीं रहे। तब कुओं की बड़ी मर्यादा थी। जिस कुएं से गाँव पानी पीता था। जूते चप्पल पहनकर उसकी पाल पर नहीं जाते थे।

chambal aarti

-द ओपिनियन-

कार्तिक का माह शुरू हो गया है और हमारे यहां कार्तिक स्नान की परम्परा रही है। खासकर महिलाएं एक माह तक कार्तिक स्नान करती हैं। मरू अंचल में जहाँ नदी नाले नहीं हैं, चार साढ़े चार दशक पहले गाँवों में कुओं पर या बड़े तड़के कुएं से पानी लाकर घर पर स्नान किया जाता था। हाड़ौती में नदी नाले खूब हैं तो वहां तो घाट घाट ही गंगोत्री है। लेकिन अब पहले जैसा माहौल नहीं रहा। लोग घरों तक सीमित होते जा रहे हैं। शेखावाटी अंचल में यही स्थिति थी। तब विद्युतीकरण नहीं हुआ था और कुओं से बैल ऊंट जोतकर या आदमी खुद खींचकर पानी निकालते थे। आस्था प्रबल होती थी। मान लेते थे कुएं माँ गंगा का ही रूप हैं। कहीं कोई धारा बिछुड़कर बहकर यहाँ तक आई होगी। बड़े तड़के ही महिलाओं का समूह भजन गाते हुए कुएं पर पहुँच जाता, अपने हाथों से खींचकर कुएं से पानी निकालती और फिर स्नान करती। इसी भाव से कि यह माँ गंगा का ही जल है। इस दौरान गीतों का सिलसिला जारी रहता। सूर्योदय तक श्रद्धा की यह धारा बहती रहती। कैसा माधुर्य था उन गीतों में कैसा आस्था का भाव और साझापन था आज अकल्पनीय सा लगता है। कुओं को बिजली खा गई और पानी नलों से घरों तक पहुँच गया तो साझा स्नान का यह सिलसिला भी टूट गया। सूर्योदय होते ही भगवान भुवन भास्कर की प्रार्थना की जाती जिसे प्रभाती कहा जाता था…….
जाग्या जाग्या राजा कश्यप जी रा पूत सहेल्यो’ य
गायां रा ग्वाल चाल्या
पंछीड़ा मारग’अ चाल्या
नेम धर्म सब साथ सहेल्यो’ य
…..
गाँवों में अब न ग्वाल रहे और न पंछी । चिड़िया दुर्लभ हो गई है। कुएं गंगा के घाट नहीं रहे। तब कुओं की बड़ी मर्यादा थी। जिस कुएं से गाँव पानी पीता था। जूते चप्पल पहनकर उसकी पाल पर नहीं जाते थे।

(गजानंद शर्मा की फेसबुक वॉल से)

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