
– विवेक कुमार मिश्र

होली आ रही है । कह रहे हैं पेड़ पल्लव। कोई नहीं सुन रहा तो मत सुने। पर पेड़ तो कह ही रहे हैं कि होली आ रही है …दूर दूर तक रंगों का खेला और मेला चल पड़ा है। फूल इस तरह बौरा – बौरा कर खिल रहे हैं कि न देख पा रहे हैं तो उसकी महक और गंध से भी रंग का अहसास हो सकता है और आम तो ऐसे बौरा गए हैं कि पूरा परिसर ही अपने ही ढ़ंग से महक रहा है । एक बहुत ही मीठी गंध और मादक गंध उठ रही है पर अब काम धाम में लोग इतने व्यस्त हैं कि किसी को कुछ भी दिखाई नहीं देता न ही कुछ सुनाई देता है। बस लोग अपनी धुन में अपनी रफ़्तार में भागे जा रहे हैं। किसी को पता भी नहीं कि क्यों भाग रहा है। जा रहा है तो क्यों जा रहा है। सब एक दूसरे को देखते भाग रहे हैं। कोई जा रहा है इसलिए वो भी जा रहे हैं। यह सब हो रहा है पर रंग पड़े हुए हैं अपनी जगह। कोई भीग नहीं रहा है कोई किसी को रंग से भीगो नहीं रहा है। किसी को मतलब नहीं है कि होली का पर्व आने वाला है यों कहें कि आ ही गया है। एक दौर वह भी था कि महीनों पहले से लोग होली खेलने लगते थे। लोग कहीं जाते तो नये कपड़े पहनकर कम ही जाते कि होली का मौसम है कब कौन रंग डाल दें कह नहीं सकते । इसलिए मोटा झोटा जो मिल जाता जिसके खराब होने का डर कम होता उसे पहनकर निकल जाते । लोग तैयारी करते तरह तरह के टाइटल देने की इसमें लोगों के पूरे व्यक्तित्व की पहचान होती । जिसे जो टाइटल मिलती वह इतना फिट बैठती कि अच्छा लगे या बुरा पर वह उसे मान लेता कि मेरे साथ न्याय हुआ है । इस तरह बुरा ना मानो होली है कहकर लोग एक दूसरे को सुधरने और सुधारने का मौका देते । इस समय आलू पर लिख कर छापे बनाए जाते और फिर मौका देखकर पीठ पर ठप्पा मार दिया जाता । रंग खेलने के लिए पूरे के पूरे महीने भर तैयारी चलती और इस बीच तरह तरह से प्रयोग चलते रहते कि कैसे पक्का रंग बनाना है जो उतरे नहीं । रंग को स्कूलों में फाउंटेन पेन से स्याही की तरह छिड़कने का अलग ही मजा था । होली के दिनों में कोई गंभीर नहीं होता सब हंसी खेल के मूड में आ जाते । सब दुश्मनी भुला कर दोस्ती के रंग में एक दूसरे के साथ रंग जाते । यह पर्व हर तरह के भेद को भुला कर दुनिया को रंगों के साथ लीला करने का अवसर देता था । इतनी मस्ती की लोग बाग फाग गाते थे । एक आदिम राग चल पड़ता था । यूं ही हवाओं में रंग का नशा सा छा देता था कि हवाओं के साथ रंगों की लहर लिए लोग उड़ते से नजर आते । कहते हैं कि जो होली में भी खुश नहीं रहा वह फिर कब खुश होगा ? नाचना, गाना , खुश होना और औरों को भी खुश रहने देना ही तो होली है । अब होली इसलिए भी कम ही दिखती है कि कोई भी अपनी प्रकृति से खुश नहीं हैं । सब यूं ही जैसे लगता है कि समय काट रहे हैं । अब भाई ! समय ही काट रहे हैं तो क्या होली क्या दीवाली सब आकर चलें जाते और लोग हैं कि टस से मस नहीं होते । सब बस अपनी जगह पर बने रहते हैं । यह समय बने रहने का है । खेलने हुलसने और आनंदित होने की कला नहीं आती सब बस हाय पैसा हाय पैसा कर रहे हैं । भला फिर कौन मनायेगा होली । ऐसे में अब बच्चे ही इन दिनों में होली के उल्लास में दौड़ते भागते और रंग खेलते दिखते हैं जो होली को होली बनाते हैं । होली आपकों खोलती है । आपको अपने घेरे से बाहर निकल कर आने को कहती है । पद प्रतिष्ठा से दूर सहज होने का अपनी प्रकृति में आने का समय के साथ रंग जाने का और रंगों में डूब जाने का यह पर्व हमें अपने मूल से अपनी जमीन से अपने घर संसार से जोड़ने का काम करती है। होली का पर्व रंग का पर्व होते हुए मन देह को एक साथ रंगते हुए उल्लास की दुनिया से हमें सीधे सीधे जोड़ देता है। यह उल्लास बच्चों से लेकर बड़े बुजुर्ग तक एक साथ दिखाई देता है । बच्चों का उल्लास देखते ही बनता है। जो बड़े हो जाते या अपने को कुछ ज्यादा ही बड़ा मान लेते हैं वे होली के रंग में जुड़ते हैं पर थोड़ा संकोच लिए। बच्चों में संकोच नहीं होता वे पूरे मन से रंग खेलते हैं … जीवन के उल्लास में कूद पड़ते हैं और रंग उनके साथ उछलता कूदता चलता है3। होली की छुट्टी पर घर जाने से पहले सभी बच्चों ने जी भर रंग गुलाल खेला । एक दूसरे को रंगते हैं जो बचता है उसे सबसे पहले दौड़ाकर पकड़ते हैं और रंग लगाते हैं । एक दूसरे पर रंग और गुलाल डालते हैं , कोई किसी की पीठ पर कुछ लिखता है तो कोई चेहरे को ही गुलाल से रंग डालता । एक जमाने से होली की छाप चली आ रही है , अचानक आकर होली के रंग में डूबों देना , रंग की छाप लगा देना तो पेन की पूरी स्याही उड़ेल देना , इस तरह रंग , गुलाल , स्याही और कुछ नहीं तो पानी होली में सब चलता है कि तर्ज पर रंग उड़ते रहते हैं । यहां संसाधन नहीं मन का रंग और जीवन का उल्लास बोलता है । बच्चों को देखता हूं तो आज भी वे उसी उल्लास के साथ रंग को लिए दौड़ते हैं जो किसी भी जमाने के बच्चों को देखते हुए कहा जा सकता है ।

बड़े जरूर बदल गये । उनके लिए होली पर्व अपने मतलब साधने का जरिया हो गया। किसे शुभ होली कब बोलना है किस तरह बोलना है ये बड़े ध्यान देते हैं पर बच्चे तो उमड़ पड़ते हैं होली पर अपने रंग के साथ अपनी खुशियों वाली पूंजी के साथ । उन्हें तो बस ये मतलब होता है कि कौन उनके साथ रंग खेलेगा कैसे कैसे तरीके बतायेगा और आज तो गूगल बाबा भी बताने वाले हैं इसलिए बच्चे सर्च कर रंग खेलते हैं । अब हर्बल रंग का जोर है तरह तरह के खिले फूल से रंग बनाएं उसमें इत्र की शीशी उड़ेल दें फिर रंग के साथ महक और खुशियों का रंग बच्चों पर ऐसे तारी हो जाता है कि उन्हें कुछ और सूझता ही नहीं । एक दूसरे की पिचकारी को देखते हुए नये नये स्टाइल वाली पिचकारी लाते हैं आजकल पीठ पर बैग की तरह रंग को स्टोर कर चलाने वाली पिचकारी खूब चल रही है तो फिर बड़े पाइप वाली पिचकारी सब बाजार में है और सब इंतजार कर रहे हैं कि बच्चे आयेंगे और बाजार रंगों का उल्लास का दौड़ पड़ेगा । हमारे पर्व एक दूसरे की जिंदगी को साथ लिए चलते हैं । कोई रंग खेलता है । कोई खुशियों में झूमता है और किसी का घर चलता है और इस क्रम में सब एक दूसरे के साथ खुश होते हैं । होली का पर्व सभी के भीतर रंग भर देता है। अमीर गरीब सब पर एक सा रंग चढ़ जाए यहीं तो कह रहा है त्योहार। जीवन में कितना ही
अभाव हो पर होली तो रंग और उल्लास के साथ ही चलती है । जीवन में अर्थ और उमंग को रचने के लिए कुछ हो या न हो पर होली का पर्व तो होता ही है । यहां सब आ जाते जो नहीं आता उसे भी खींच कर लाया जाता कि बचकर कहा जायेगा रंग से , दुनिया से , दुनिया का नाम ही रंग है और इसे अवसर होली का पर्व देता है ….
रंगों के पर्व में
सब अपने आप को भुलाकर
उत्साह व उल्लास से
रचते हैं जीवन का विधान
इन रंगों के साथ
हम सब जीवन के उत्सव को जीते हैं ।
होली में सब एक दूसरे के साथ रंग को जीते हैं , खेलते हैं । जिस पर होली का रंग नहीं चढ़ता वह किस काम का , इसीलिए होली की मौज से दूर रहने वाले भी कुछ नहीं तो अपने ही हाथों अपने को रंग कर एक किनारे बैठ जाते हैं । जिस पर सब रंग लगाते वह खुशनसीब होता है कि दुनिया उसे कितना मान दे रही है । सब आकर उसे रंग और गुलाल लगाते । यह मान सम्मान का विषय है । रंगों की दुनिया में होना सही मायने में वास्तविक दुनिया में होना होता है । रंग हमें रचता है खिलाता है और हमारे संसार को रंगता है। खिलना एक दूसरे को खिलते देखना ही सही मायने में होली का रंग है। यह होली सब पर रंग की तरह, खुशियों की बरसात की तरह भिगो डालने वाली हो जिसमें सब हो क्या बच्चे क्या बड़े और क्या बुजुर्ग । सब मिलकर होली को सुपर होली बनाते हैं।
बच्चों के उपर फूल मस्ती छायी है। वे रंगों के साथ उड़ते हैं। जितना गुलाल उड़ता या जितना रंग उछलते उससे कहीं ज्यादा बच्चे उछलते कूदते और एक दूसरे को रंग से रंग देते। रंग के साथ इतना घुल मिल जाते कि और कुछ दिखाई नहीं देता । होली का रंग दूरियों के बीच सारे भेद मिटाकर सभी को एकरस कर देता है । जो भी भेद होते वे रंग गुलाल के साथ हवा में उड़ जाते और सब एक दूसरे से अंकुठ भाव से मिलते जाते हैं । यह रंगों का संसार जीवन का संसार होता है । इस संसार से जुड़कर ही हम सब वास्तव में अपनी जिंदगी को जीते हैं। रंग का स्वभाव होता है कि जिस पर लगता है उस पर अपना असर दिखाता है । रंग इसीलिए रंगता है कि वह अपना असर छोड़ जाता है । रंगों की इस चमक भरी दुनिया में सब मन से रंगते हैं और जीवन को उल्लास व उत्सव के साथ जीना सीखाते हैं।
– विवेक कुमार मिश्र
सह आचार्य हिंदी
राजकीय कला महाविद्यालय कोटा
एफ -9 समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002
पलाश के पेड़ों में टेसू के फूल दहक रहे हैं पेड़ों में नई कोंपले झांक रही हैं और बागों में तरह तरह के फूल पुष्पवित हो अठखेलियां कर रहे हैं, प्रकृति के इसी सौंदर्य की विवेचना की है विद्वान लेखक डाक्टर अखिलेश मिश्रा ने.
यहां तो विवेक कुमार मिश्र हैं