भूली बिसरी यादें: वो परीक्षाओं के दिन

पैन मिलने की खुशी ही अलग थी, खासकर हम बच्चों के लिए जो अपना सारा क्लास वर्क होम /वर्क पैन से ही करते थे। जब हम छोटे थे 70 और 80 के दशक में, फाउंटेन पैन होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। उस समय निब वाला पैन यानी #फाउंटेन पैन बचपन की यादों को ताजा करने जैसा है। बड़ों के खुश होने पर भी उपहार में पैन ही मिलता था।

chaild painting
स्कूल की ड्राइंग कॉपी में स्केच में भरे गए रंग

-मनु वाशिष्ठ-

manu vashishth
मनु वशिष्ठ

आजकल होली के साथ ही परीक्षाओं का मौसम चल रहा है, और बच्चे भागदौड़ में लगे हुए हैं, साथ ही उनके पैरंट्स भी। नित्य प्रति समाचार पत्र पत्रिकाओं में परीक्षा की तैयारी, तनाव मुक्ति, समय प्रबंधन, आहार को लेकर ना जाने क्या क्या प्रकाशित होता रहता है। एक हमारा समय था जब परीक्षा की तैयारी के नाम पर, पढ़ाई के साथ तीन चार पैनों को अच्छी तरह धो पौंछ कर सुखाया करते थे, और मां बनाती थीं देशी घी के लड्डू, दिमागी ताकत के लिए। पैन के एक एक हिस्से निब, जीभी, स्याही वाला हिस्सा, कवर सब को साफ करते थे, फिर लिख कर देखते कि सब ठीक तो है। कई बार नई निब खरीदी जाती वो भी #जी निब, कहीं लिखने की रफ्तार में कमी ना रह जाए, अटक ना जाए। ये पैन भी चौथी/पांचवी कक्षा में मिलते थे। उससे पहले रूल पेंसिल से ही लिखना होता था। एक #सुलेख की कॉपी भी होती थी, जिसमें मुख्यतः नीति वाक्य, कलम (सरकंडे, एक विशेष प्रकार की लकड़ी को छीलकर आगे से हल्का तिरछा काटते थे, जिससे अक्षर सुंदर बनें) स्याही दवात से लिखे जाते थे। बालपैन से लिखना वर्जित था। पैन मिलने की खुशी ही अलग थी, खासकर हम बच्चों के लिए जो अपना सारा क्लास वर्क होम /वर्क पैन से ही करते थे। जब हम छोटे थे 70 और 80 के दशक में, फाउंटेन पैन होना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी। उस समय निब वाला पैन यानी #फाउंटेन पैन बचपन की यादों को ताजा करने जैसा है। बड़ों के खुश होने पर भी उपहार में पैन ही मिलता था। जब स्कूल में पैन को चलाते वक्त कई बार अंगुलियां भी स्याही से रंग जाती थी। जब हम छोटे थे उस समय परीक्षा देते समय यदि अंगुलियों पर स्याही लग जाती थी, तो यह एक शुभ शगुन मानते थे हम बच्चे, कि पेपर अच्छे गए हैं। यदि नहीं होता था तो कोशिश करते थे कि किसी तरह हाथ पर उंगलियों पर स्याही लग जाए। एक और बात याद आई, उस समय परीक्षा कॉपी के साथ एक तीन चार इंच का #स्याही सोख कागज अवश्य मिलता था, जिससे स्याही फैलने पर तुरंत सोख ली जाए।
भले ही हम कंप्यूटर युग में प्रवेश कर गए हैं, फिर भी पैन हम सबकी जिंदगी का जरूरी हिस्सा रहा है। उस जमाने में स्कूल के बच्चों से लेकर आज भी बड़े बड़े अधिकारियों के कोट में लगा फाउंटेन पैन, व्यक्तित्व में भी निखार लाता है।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान

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श्रीराम पाण्डेय कोटा
श्रीराम पाण्डेय कोटा
2 years ago

मनु वशिष्ठ ने 1960/70के दशक में बचपन के छात्र जीवन का बहुत सटीक विश्लेषण किया है,वह दिन अब देखने को नहीं मिलने वाले हैं,काश लौटकर आ जाएं

Manu
Manu

धन्यवाद आदरणीय ???? गुजरा हुआ जमाना लौट कर कहां आता है ????

Manu Vashistha
Manu Vashistha
Reply to  Editor
1 year ago

हार्दिक आभार आदरणीय ????