
-मनु वाशिष्ठ-

आज बच्चों से बातें करते हुए पुरानी यादें ताजा हो गईं। बच्चों को बता रही थी कि कोई चालीस पैंतालिस साल पहले जब भी गांव में नानी या दादी के यहां जाना होता, एक चीज बड़ी अचरज भरी लगती। दोनों गांव ( ननिहाल, ददिहाल ) दस किलोमीटर के फासले पर ही थे तो संस्कृति एक जैसी ही थी। सुबह जागने के बाद घर की साफ सफाई होने के बाद ही रसोई में कुछ बनता था। मुझे आज भी याद है रसोई में अम्मा चूल्हा पोतने के बाद चाय दूध बना रही होतीं और पड़ौस वाली मौसी आ जाती आंच मांगने, कहती “अम्मा आंच दे दो”। अम्मा भी चूल्हा जला कर तैयार रखतीं और अधिकतर चाय पिला कर ही भेजतीं। मुझे भी थोड़ा अजीब तो लगता था कि आग जैसी चीज कौन मांगता है, फिर बड़े होने पर समझ में आने लगा कि पहले माचिस जैसी चीज भी कई घरों में दुर्लभ हुआ करती थी। पढ़ कर कइयों को शायद आज भी आश्चर्य लगे, और बच्चों को तो यकीन भी नहीं हुआ कि पहले के लोग कितने सीमित साधनों और किफायत से जीवन गुजर बसर करते थे। नन्ही पोती तुरंत बोली, दादी! वो लाइटर भी तो यूज कर सकते थे। मुझे हंसी आ गई, सच में बच्चे कैसे यकीन करेंगे, अगर मैं उनसे कहूं कि जिस बासी छाछ को भी तुम खरीद कर पीते हो, पुराने समय में यूं ही बांट दिया करते थे। पहले जब दही बिलो कर मक्खन निकाला जाता था और पास पड़ौस के लोग छाछ के लिए भी बर्तन रख जाते थे। और अम्मा, चाहे घर के लिए कम रह जाए लेकिन जितने भी बर्तन रखे होते, सभी को जरूरत के हिसाब से छाछ भर देतीं। बड़े परिवारों में तो वैसे भी चूल्हे, सुबह से देर रात तक प्रयोग में आते ही थे और उनके पास माचिस जैसी चीज भी उपलब्ध रहती थी, लेकिन छोटे स्तर के परिवार आग भी #मांग कर प्रयोग करते थे और यह सामान्य बात होती थी, इसे निम्नतर नहीं माना जाता था। अम्मा कहतीं चूल्हे की आग जलाए रखना, कभी बुझने मत देना। हो सकता है इसका मतलब यह हो कि घर मेहमानों से, आने जाने वालों से भरा रहे, रसोई से कोई भूखा न जाए, अर्थात् समृद्धि बनी रहे। कई बार तो उपले/कंडे को बरोसी (चूल्हे की तरह मिट्टी का गोल पात्र, जिसमें कंडे सुलगा कर धीमे धीमे मिट्टी की मलरी में दूध गर्म होता था) में गर्म सुलगती राख में दबा दिया जाता था, ताकि जरूरत के समय निकाल कर आग जलाई जा सके। सच में कितना कठिन जीवन था, छोटी छोटी चीजों के लिए भी इतना संघर्ष! उसके बावजूद कहीं कोई शिकायत नहीं। आज तो सब चीजें उपलब्ध होते हुए भी ना तो धैर्य, उदार हृदय है ना ही वो अपनापन। पुराने समय में साधन जरूर सीमित थे लेकिन कोई भी अभाव में ना रहे, सबको साथ लेकर चलने का भाव था।
__ मनु वाशिष्ठ, कोटा जंक्शन राजस्थान
आज की पोस्ट ने ननिहाल याद दिला दिया।बरोसी की राख के अंदर कंडे की आग हमेशा सुरक्षित रहती थी।गांव में दुकानें ज्यादा होती नहीं थीं।माचिस को भी डिब्बे में सुरक्षित रखते थे।उसके नम होने का डर रहता था। ननिहाल गांव में होने के कारण वहाँ का जीवन जिया है।बहुत अच्छा लगता था।
मनु वशिष्ठ जी ने जो बात बताई उसका अनुभव तो मुझे भी नही है जबकि मेरी उम्र उन से ज्यादा है। मेरा बचपन रेलवे कॉलोनी में बीता है जहां आंच मांगने की परंपरा नहीं थी। गोबर के उपलों पर दूध हमारे यहां भी उबाला जाता था और दिन भर उसी में पड़ा रहता था। अंगीठी जिस में कोयले जलाए जाते थे रोजाना गीली मिट्टी से सुबह पोती जाती थी और नहाने के बाद ही कुछ खाने या पीने को मिलता था। एक और नया शब्द जो मैने सुना वो है ददिहाल । ननिहाल तो सही है लेकिन दादी का घर तो अपना घर ही होता है।