भूली बिसरी यादेंः मेरी नानी, एक परंपरा 

rangoli kala dirgha

-मनु वाशिष्ठ-

manu vashishth
मनु वशिष्ठ

हमारे समय में ना तो समर कैंप होते थे और ना ही कोई ट्रिप। छुट्टियों का मतलब बस होता था केवल नानी का घर, और मामा मौसी होते सबसे चहेते दोस्त कम हर इच्छा पूरी करने वाले पूर्ण अवतार। और उसके लिए भी पूरा साल इंतजार करना पड़ता था मामा का लेने आना, नए कपड़े सिलवाना एक उत्सव की तैयारी लगती थी। नानी के यहां जाना किसे अच्छा नहीं लगता, हम भी नानी के यहां गर्मियों में जाते, सब मामा मौसी के बच्चे छत पर पानी का छिड़काव कर रात को सोते, तो नानी हमें नानाजी के स्वतंत्रता संग्राम के असली किस्से सुनाती। मेरी मां उस पीढ़ी की थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम को देखा ही नहीं झेला भी था। मेरे नानाजी को काले पानी की, और सौ कोड़े की सजा भी हुई थी, जो बाद में माफ हो गई थी। किस तरह अंग्रेज घर में घुस कर, तोड़ फोड़ करते, एक भी सामान नहीं छोड़ते थे। नानाजी रातों में ठंड में यमुनानदी पार कर आते, कई बार उसी में छिपे होते। इस तरह की घटनाएं जिन्हें हम पढ़ते हैं, सच में सुनकर बहुत अच्छा लगता था।अक्सर मैंने नानी के लिए कहते सुना है मेरी नानी बहुत अच्छी है, मेरी नानी के यहां ये है … मेरी नानी के यहां वो है … मेरी नानी … मेरी नानी … मेरी नानी … सही भी है। तर्कसंगत बात यह है कि नानी के यहां बेटी और बच्चे साल में सीमित समय के लिए ही जाते हैं, तो उनकी जायज, नाजायज सभी बातें मान ली जाती हैं, और फिर बेटियां भी अपनी मायके की बुराई कहां बर्दाश्त कर पाएंगी। अब बेचारी दादी के पास तो हर समय रहते थे बच्चे, तो उन्हें तो डांट भी पड़ती थी, काम की भी कहेंगे, सही गलत भी बताएंगे और प्यार भी करेंगे, इसीलिए कई बार नानी ज्यादा प्यारी लगती थी। वैसे आज तो #दादीनानी दोनों का ही रोल बराबर है। बराबर आना जाना, तो वह बात नहीं है, फिर भी अच्छा हो या बुरा, दादी का नाम तो होता है लेकिन बेचारी नानी कई बार #गुमनाम सी ही रह जाती है। आज मैं इस रिश्ते पर लिखने का सोच रही हूं। आज अगर मेरी नानी होती तो शायद 100 साल से अधिक होती। उस समय के हिसाब से हम भी अपनी नानी को अम्मा ही कहते थे। मुझे अपनी नानी हमेशा बुजुर्ग ही देखने में आईं, उनकी सहायता के लिए एक फुल टाइम नौकर भी था। लेकिन उससे हमारा व्यवहार मैत्रीपूर्ण ही रहता था, नाम था बुद्धि। जैसा नाम वैसा ही काम, होशियार और ईमानदार भी। लेकिन फिलहाल उसकी नहीं, नानी की ही बातें करेंगे। मुझे याद है गांव में बिजली कम ही आती थी। शाम होने पर नानी अपनी लाठी पकड़े ठुक ठुक करती लालटेन जलाती फिर ठाकुर जी और तुलसी चौरा पर दीया जलातीं। एक दीया पड़हरी (पानी का स्थान) पर भी पितरों के, गंगा मैया के नाम से लगातीं। शाम को पक्षियों का शोर बंद हो जाता तो नानी बताती सब पक्षी अपने घर बच्चों के पास गए, और सो गए। रात में सोते हुए खगोल शास्त्र पढ़ा देतीं, कभी रात को एक पक्षी (कोतवाल/चुचुहिया) जोर से बोलता तो मैं डर जाती तब नानी कहती सो जाओ, अभी एक पहर बीता है चुचुहिया बोल रही है, अपने आंचल में छुपा लेती और मैं ना जाने कब सो जाती। सुबह सूर्य की रोशनी पड़ने पर ही आंखें खुलती। नानी के पास एक छोटी सी संदूकची भी थी, जिसमें वह ताला लगाकर रखती थीं। जब वो खोलती तो बड़ा अच्छा लगता, कभी कभार उस धरोहर में से पैसे भी निकालकर देती थीं अम्मा। मेरी नानी वैसे तो हम सभी बच्चों को बहुत प्यार करती थीं, लेकिन सबसे ज्यादा मेरी #दीदी को। पता नहीं क्यों उनको तो वह किसी को भी कुछ नहीं कहने देती थीं। दीदी के लिए तो, मम्मी बताती हैं, मेरी नानी ने कसम तक खिला दी थी, कि तुम (मेरी मम्मी) इसे कभी भी नहीं डांटोगी, और ना ही पिटाई करोगी। वह तो बाद में मम्मी ने कसम को तुड़वाया कि कभी तो डांटना ही पड़ेगा। नानी के यहां जाने पर पूरा गांव ही मौसी, मामा, नाना होता। बचपन में हम समझते थे हे भगवान! कितने सारे मामा, नाना वह तो बाद में समझ में आया। लेकिन वहां गांव में सब का प्यार, किसी की भी बेटी, मतलब पूरे गांव की बेटी। एक बार तो दीदी ने शक्कर की बोरी खोलकर प्याऊ ही चला दी थी, वो तो नानी ने ही बचाया, वरना पता नहीं क्या होता, नानाजी के गुस्से के आगे। मुझे वहां की एक बात आज भी याद है जो नानी कहती, हमारी किसी भी फरमाइश पर __ नाना, मामा के यहां अनाज क्या भाव? “अल्ले पल्ले”
यानि “अल्ले पल्ले” मतलब है, ढ़ेर सारा बेमोल। बच्चों के लिए कोई कमी नहीं सब कुछ ढेर सारा, मुंह मांगा मुराद पूरी हो, ना तोल ना मोल कुछ भी नहीं। सच में नानियों के लाड़ दुलार ऐसे ही होते हैं। और जब नानी के यहां से लौटने का समय आता नानी ना जाने कितने सामान तैयार कर देती, खाने पीने की चीजें, अचार, मिठाई, कपड़े और न जाने क्या क्या। सभी नानियों को प्रणाम! क्योंकि, नानियों का नाम कम ही लिया जाता था। उस समय उन गुमनाम सी प्यारी नानियों का क्या-क्या याद करूं? आज अगर वह होती तो देखती उनकी प्यारी दोहिती भी अब नानी, दादी बन गई है, लेकिन उनकी शैतानियां वैसी ही हैं। मेरी दीदी की शैतानियों में शायद मेरी नानी का सबसे बड़ा हाथ है, हा हा हा … एक बात और जो मुझे आश्चर्यचकित करती है, मेरी नानी यूपी में आगरा के पास एक गांव से संबंध रखती थीं, लेकिन उनका नाम था #हुकुमकौर जो मेरी आज तक समझ नहीं आया ब्राह्मण परिवार में यह पंजाबी नाम कैसे?

__ मनु वाशिष्ठ कोटा जंक्शन राजस्थान

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
Sanjeev
Sanjeev
2 years ago

आपने तो नानी याद दिला दी हा हा हा वास्तव में स्मृतियां ही सबसे बहुमूल्य धरोहर हैं। बहुत बहुत बधाई