
-यश मालवीय-
मौसम करवट बदल रहा है । भगवान भास्कर मकर राशि में प्रवेश कर रहे हैं । किरनों ने सुबह का घना कुहरा तार – तार कर दिया है । धूप कुछ और चमकीली हो गई है, और आसमान कुछ और नीला । उस नीले आसमान में पतंगें बिछ गई हैं। आसमान पर ही लाल ,पीले, हरे ,नीले , गुलाबी , बैगनी, नारंगी ,रंगों को सहेजे एक भिन्न किस्म का इंद्रधनुष खिल उठा है । यह पतंगें हमारे सपनों की हैं । दूर गगन में उड़ती हैं तो हमारी उम्मीदों को पंख लग जाते हैं। कट कर गिरती भी हैं तो गंगा की लहरें खिलखिला उठती हैं । प्रयाग के पावन तट पर साधुओं का हल्का फुल्का जमावड़ा भी शुरू हो गया है। हालाकि सबकी आँखों में कोरोना की छाया दिख रही है, लेकिन त्यौहार तो फिर त्यौहार है । यही हमें उत्साह से जीवन जीने को प्रेरित करता है और हमारी ख़ुशी का सबब भी बनता है । लोकप्रिय ग़ज़लकार सूर्यभानु गुप्त का एक शेर याद आता है —
कंघियाँ टूटती हैं लफ़्ज़ों की
साधुओं की जटा है ख़ामुशी
यह गंगा जमुना का संगम है । संगम का मतलब ही है मेल -मिलाप। गंगा जमुना के संगम में जो सरस्वती लुप्त हुई वही पंत , निराला , महादेवी के रूप में उजागर भी हुई । मिलने का मतलब ही है खिचड़ी हो जाना । यह खिचड़ी का पर्व है। जैसे दाल – चावल आपस में घुल मिल कर खिचड़ी का रूप ले लेते हैं वैसे ही हमारे रिश्ते – नाते इस तीज त्यौहार में अपने को समो लेते हैं । हमारी दादी एक कहावत सुनाया करती थीं —
खिचड़ी के चार यार
दही पापड़ घी अचार
यह खिचड़ी साल दर साल आती है और हमारी ज़िंदगी का स्वाद बढ़ा जाती है । हम उनकी बात नहीं करते जो डेढ़ चावल की खिचड़ी पकाते हैं । बीरबल की खिचड़ी भला कौन भूल सकता है ? यह सारी बातें तब समझ आ रही हैं जब हमारे बाल दाढ़ी भी खिचड़ी हो गए हैं । खिचड़ी हो जाना भी एक मुहावरा बन गया है । घाट घाट का पानी पी चुके लेकिन अब हमें घर की ही खिचड़ी अच्छी लगती है , मद्धिम आँच में सीझी और पकी हुई । निदा फ़ाज़ली साहब याद आते हैं , फ़रमाते हैं —
वक़्त ने मेरे बालों में चाँदी भर दी
इधर उधर जाने की आदत कम कर दी ।
यह खिचड़ी आदिम राग की है , हमारी साझा तहज़ीब की है , हमारी गंगा जमुनी संस्कृति की है । दाल चावल का गले मिल जाना एक जीवन्त सच है हमारी उत्सवजीविता का । यह प्रतीक ही हमारे टूटे और बिखरे हुए समय से लोहा ले सकता है । हाथ पाँव गल रहे हैं लेकिन खिचड़ी से उठती भाप ऊष्मा दे रही है । एक पल सूरज आँच देता है तो दूसरे ही पल मोमबत्ती की लौ सा थरथराने लगता है । पिछवाड़े का नीम रह रह कर बादल का शॉल ओढ़ लेता है । टहनी टहनी नीम की पत्तियाँ दाँतों सी बजने लगती हैं । ऐसे ही ठिठुरे हुए समय में बक़ौल हरिशंकर परसाई ‘ ठिठुरे हुए प्रजातन्त्र ‘ को गरमाने के लिए खिचड़ी जैसे त्यौहारों की ग़ज़ल के शेर की तरह आमद होती है । ज़िन्दगी में सहज ही एक सोंधापन घुल जाता है ।
खिचड़ी तो हमारे लोकरंजन का पर्व है । हमारा लोक जो गाँवों में बसता है । हमारा मन ही वह किसान होता है जो हमारी चेतना में सभ्यता और संस्कृति के बीज बोता है । वह केवल अन्नदाता नहीं होता बल्कि हमारी हर आती जाती साँस का मांगलिक साक्षी भी होता है । हम केवल मिट्टी में बीज नहीं बोते बल्कि अपनी चेतना में भी रोशनी के बीज बोकर अपने ज़ेहनों को रोशन कर लेते हैं । हमारे लोकमानस में सबसे करुण क्षण होते हैं बेटी की विदाई के। बिटिया की विदाई पर राजा जनक जैसे धीरोदात्त नायक की छाती भी दरकने लगती है । वह टकटकी बाँधकर सीता को देखते हैं और आँखें बादल बादल हो जाती हैं । महाकवि तुलसी को लिखना पड़ता है —
सीतहिं देखि धीरता भागी
रहे कहावत परम् बिरागी ।
शकुन्तला की विदा ऋषि कण्व का कलेजा भी चीर कर रख देती है । महीयसी महादेवी वर्मा भी विवश होती हैं कालिदास के छंदों का गीतिल अनुवाद करने को । बेटी के विवाह में खिचड़ी का प्रसंग और भी मन भर देने वाला होता है । एक और मार्मिक अभिव्यक्ति याद आती है –
रो रहे थे सब तो मैं भी फूटकर रोने लगा
वैसे मुझको बेटी तेरी रुखसती अच्छी लगी
खिचड़ी का पर्व आते ही यह सारे प्रसंग जैसे पेट में कलछुल चलाने लगते हैं । इस मर्म को माँ ही समझ सकती है जब वह अपनी पाली पोसी बेटी विदा करती है तो बेटी के आँचल में दाल चावल बाँध देती है । और फफकते हुए डबडबाई आँखों से कहती है , ‘ससुराल जा रही हो दुलारी धिया मैंने तुम्हें अपने ह्रदय के सम्पूर्ण नेह के साथ जो खिचड़ी सौंपी है तुम अपने घर जाकर इसे पकाना । जैसे खिचड़ी में दाल चावल घुल मिल जाते हैं तुम वैसे ही ससुराल में सबके साथ हिल मिल कर रहना ‘ , । इस वात्सल्यमयी हिदायत पर हामी के रूप में धिया के होठ बस थरथरा कर रह जाते हैं और एक तनहा आँसू गाल पर ढुलक जाता है । यही हमारा पोंगल है , मकर संक्रांति है और खिचड़ी है । बेटी गुजरात के अहमदाबाद से पोंगल के संदेश भेज रही है तो मैं प्रयाग के गंगा तट से बासमती चावल और अरहर की दाल बसन्ती की बनी खिचड़ी की सुगंध उसे भेज रहा हूँ । ये खिचड़ी वस्तुतः आने वाले वसन्त की आहट ही है , उसकी पूर्व पीठिका है । मकर संक्रांति को मधुमास की भूमिका भी कह सकते हैं । बहरहाल ! मेरी तो खिचड़ी तैयार हो गई और अब मैं जा रहा हूँ उसके स्वाद की सुगंध में भीगने ।
(लोक माध्यम से साभार)