
– विवेक कुमार मिश्र-

दशहरा मेला में हूं ….कोटा का दशहरा मेला पूरे देश में प्रसिद्ध है, इस राष्ट्रीय दशहरा मेला में आकर एक जगह पर ठहर सकते हैं, स्थाई भाव के साथ दुनिया का आकर्षण बना रहे इसके लिए मेले की संस्कृति पूरे देश में फैली हुई है और हर मेला अपने साथ कुछ नया रंग लिए रहता है…..जीवन की सजीवता व जीवंतता के लिए, जीवन की चहक और खुशहाली को देखने के लिए बार – बार मेले में …..जीवन के संसार में और बाजार में आना चाहिए । मेला सीधे – सीधे आपकों अपनी जड़ों से , परम्परा से जोड़ने का काम करता है । जो पदार्थ मेले में मिलते उसे कहीं और आसानी से नहीं पा सकते …जैसे कि पुराने जमाने की घंटियां , छोटी – बड़ी लाठी , बासुंरी , सूतली की बटी हुई रस्सी , अनेकशः पदार्थ जो सिर्फ मेले में ही दिखते हैं | स्थानीय सामान से लेकर प्रदेश व देश भर के विशेष सामान को मेले में जगह मिल जाती है । पदार्थों की जीवंत प्रस्तुति मेले में ही होती है, हर पदार्थ अपनी – अपनी विशेषता के साथ सामने होता ….पदार्थ और पदार्थ का मालिक एक साथ अपने बारे में बताते हैं , कुछ भी छिपा नहीं होता …सब सामने होता । पदार्थ की इसी विशेषता को लेकर मेला सीधे – सीधे हमारे जीवन संसार से संवाद करता है । मेले में पदार्थ की विशेषता उसकी जीवंतता में होती है , वहीं वह सबकी पहुंच में होता है | हर नागरिक मेले में पदार्थ के साथ पदार्थीकृत होने , उससे जुड़ने के लिए चल पड़ता है । मिट्टी की गाड़ी से लेकर लोहे की गाड़ी तक मेला भरा रहता है । सबसे बड़ी बात एक साथ इतने लोग एक जगह नहीं मिलेंगे जो मेले में मिलते हैं | मेले में सब खुश दिखते हैं कोई भी दुःखी नहीं …दुखिया का दुःख भी मेले में आकर दूर हो जाता । यहां हर आदमी सहज रूप से उत्सव मनाता दिख जाता है…..यहां आकर सीधे – सीधे समाज में सामूहिक दुनिया में रहने की कला सीख जाते हैं । यह बाजार जिन्दगी का बाजार है । यहां जीवन का उत्सव सजता रहता है ….हर आदमी के लिए कुछ न कुछ रहता ही है …..मेले में सब अपने – अपने हिसाब से चलते हैं …अपने – अपने अर्थ को खोजते हुए…जीवन जीते हैं । यह मेला सबको अपने भीतर समा कर चलता है ….गरीब को जहां अपने काम की वस्तु मिल जाती वहीं अमीर आदमी को जीवन की खुशियां मिल जाती….जीवन को जीते हुए आदमी आगे बढ़ता है । जीवन को जानना ही अततः मनुष्य का उद्देश्य होता …कैसे कर जीवन को जान समझ लें ….दुनिया को देख लें …यह देखना ही संसार और संसार का मेला है जिसने मेला नहीं देखा उसका संसार ही कितना …..और क्या सीखा ? संसार से…..यह सब मेला में आकर पता चलता । एक मेला सीधे – सीधे जीवन और संसार से जोड़ देता है …..मेला है तो जीवन का रंग भी है और संसार भी है न जाने कितने रंग …कितने ही संसार मेले से जुड़ जाते ….भाव अभाव से मुक्त खुशियों का संसार लिए मेला आ जाता हमसे जीवन की तरह मिलने हमसे हमारी ही बातें करने। मेले में हम अपने आप को न केवल खोजते हैं वल्कि देखते भी हैं कि कितना बचे हैं …यदि मेला आपकों बार – बार बुलाता है तो तय है कि आपमें जीने की उत्कंठा ज्यादा है । यहां अपने आपकों जानने से ज्यादा संसार को जानते हैं कि संसार में लोग कैसे हैं , किस तरह रहते हैं । यहां अन्य के साथ जीवंत संवाद करते हुए जीवन जीने का एक तरीका मिल जाता है । मेला आदमी को पूरा ही आदमी बनाने का प्रशिक्षण केंद्र है । एक आदमी क्या कुछ कर सकता ? कैसे जीवन को बरतता है ? और जीवन के सामने क्या – क्या चुनौती आती है और इन सबसे कैसे पार पाया जा सकता यह सब मेले में ही सीखने को मिलता है । आप सीख लेते हैं कि संसारियत के साथ संसार में कैसे चलना है , कहां रुकना है तो कहां से संसार को देखते हुए आगे बढ़ना है । मेले में उत्सव का भाव मेले में लगी दुकानें हैं हर दुकान कुछ न कुछ अलग संसार सामने लाकर रख देती है कि यह है संसार …..इस संसार में यह सब तुम्हारे लिए ही है , जल्दी से इस संसार को अपना बना लों …..दुबारा अवसर नहीं मिलेगा । इस संसार में आये हो तो पूरा जी लो …मेला यहीं कहता है । मेले में जो झूले हैं वह जीवन चक्र की तरह घूमते ही रहते हैं …कभी उपर जाते फिर नीचे आते फिर उपर यह चक्र घमता रहता , इसी पर जीवन का भाव भी चलता रहता है …यहां बच्चे – युवा और बूढ़े सब एक सा हो जाते …जो झूला नहीं झूलता वह झूले को देखकर अपने अतीत में चला जाता …बच्चे हैं कि एक झूले से दूसरे झूले पर झूले जा रहे हैं उनके पालक माता – पिता फोटों लेने में व्यस्त है …और इस तरह जीवन पूरा का पूरा यहां चहलकदमी करने लगता है । मेले में सब अपने बाजार को प्रस्तुत करते हैं । यहां उत्सव का भाव बना रहता है -आज चाहे जीवन में जितना खालीपन आ गया हो , हो सकता है कि आप अकेलेपन के आदी हों पर इन सबके बावजूद मेला संसार से जोड़ने का काम करता है। मेला में संसार की हलचल , जीवन का उत्सव और सांसारिक गतिविधियां चलती ही रहती हैं । मेला घर – संसार के जीवन से निकल कर थोड़ा चहकने खिलने की बड़ी जगह मुहैया करा देता । यह जगह सीधे आपकों जीवन के उल्लास में लेकर चली जाती है। जिस बचपन को आप भूल चुके होते हैं या व्यस्तता भरी जिन्दगी और कामकाज के बोझ व जिम्मेदारी ने जहां आप पर प्रौढ़ता को लाद दिया है वहीं मेला का उत्सव आपके भीतर एक खिलंदड़ापन भरने का काम करता है । मेला आपकों एक बीती हुई दुनिया में ले जाता है ….आप अपने बचपन और मेले को याद करने लगते और आज के बच्चे इस मेले में दौड़ रहे हैं । पहले के मेले भी जादुई दुनिया में ले जाते और आज के मेले भी जादुई दुनिया से लेकर एक तकनीकी दुनिया मे लेकर चले जाते हैं । आपकों अपने समय से मुक्त कर देता , एक बारगी आप मेले में सिर्फ़ मेले के ही होकर रह जाते ….जैसा मेला चाहता है वैसा आप करते हैं । अपनी उम्र से पीछे लौटा देता है – एक बीती दुनिया में फिर से जीने को , दौड़ने को कह देता है – जाओं खेलो – कूदों दौड़ो – उछलो भागो इस तरह एकबारगी आप बच्चों की तरह किलकने लगते हैं । उम्रदराज लोग बच्चों की तरह चंचल व उत्सवी हो जाते हैं । मेला सीधे – सीधे राग के संसार से जोड़ता है ….यहां आप अकेले नहीं होते लोगों का रेला चल रहा होता , हर बार यहां संसार में होने की कथा चलती है ….संसार है ही जब तक मेला है ….हां जीवन का मेला । सब उत्सव वृत्ति से धूम रहे हैं …अपनी – अपनी इच्छा के ठीहे पर रुक जाते ….और जीवन के लिए कुछ खरीदारी , कुछ मोलभाव करने लगते …इस मोलभाव में पदार्थ की प्रस्तुति और उसके प्रति अपना नजरिया होता …साथ में जरूरत …इन सबके साथ मेला हम सबके जीवन में एक उत्सव का भाव लेकर आ जाता । मेला है तो जीवन का बाजार भी लगा रहता है और बाजार में इच्छा दौड़ लगाती है …बाजार के इस सिलसिले में घूम रहा हूं । एक दुकान पर तंदूरी चाय लिखा हुआ दिख जाता है ….तंदूरी रोटी का नाम और स्वाद तो परिचय में है पर तंदूरी चाय का जिक्र एक जिज्ञासा जगा देता ….चल पड़ते हैं तंदूरी चाय पीने ….मिट्टी के कुल्हड़ मेंं……स्वाद और चाय का रंग जम जाता है । मिट्टी के कुल्हड़ सीधे जीवन से अपनी माटी से जोड़ देते हैं घोर शहरीकरण में भी मिट्टी हमें हमारी आत्मा के करीब , प्रकृति की ओर लेकर जाती है । आखिर हम सब प्रकृति के इन्हीं उपादानों में से एक हैं …इसीलिए मिट्टी का कुल्हड़ सीधे अपनी ओर खींच लेता है ।