
-हरिमोहन शर्मा-
कोटा। कोरोना की विषम परिस्थितियों पर पार पाने के बाद इस वर्ष कोटा का राष्ट्रीय दशहरा मेला भव्य रूप से भरेगा। दशहरे के दिन आज बुधवार को रावण दहन से पहले कोटा के गढ़ पैलेस में दरी खाने की रस्म भले ही पूर्व की भांति शाही वैभव व शान शौकत के साथ अयोजित की जाएगी, लेकिन पूर्व महाराव बृजराज सिंह की कमी यहां शरीक होने वाले राज परिवार के सदस्यों, ठिकानेदारों, जनप्रतिनिधियों व शहर वासियों को खलेगी। पूर्व महाराव बृजराज सिंह पुरानी परंपरा व संस्कृतिक विरासत के पक्षधर थे। उनका मानना था कि लोग अपनी सांस्कृतिक परंपरा से परिचित रहें और इसके साथ ही त्योहार की रामा श्यामी भी हो जाए।
पूर्व महाराव बृजराज सिंह जब चेहरे पर मीठी मुस्कुराहट के साथ दरी खाने के समारोह में शामिल होते थे तो सभी लोग सम्मान में खड़े हो जाते था। चाहे का शहर का विकास हो या अन्य कोई कराए जा रहे काम यदि उन्हें कुछ गलत लगता था तो सम्बन्धित जनप्रतिनिधियों या व्यक्ति विशेष से इस अंदाज में कहते थे कि उसे भी बुरा ना लगे और उनका उलाहना भी हो गए। कोटा में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत मेला दशहरा मैदान को चारदीवारी में बांध देने व वहां आने वाले लोगों को होने वाली समस्या को भी उन्होने तत्कालीन महापौर महेश विजय से अवगत कराया था। तब उन्होंने कहा था कि यो कांई कर द्यो. मैदान की दशा बगाड दी। वह दशहरा मेला मैदान का स्वरूप बदले जाने से खिन्न थे।

कोटा का ही छो न…
पूर्व महाराव बृजराज सिंह हाडोती व अपनी परम्परा और संस्कृति को बचाने के लिए प्रयासरत रहते थे। लोगों ने तो उन्हें ज्यादातर हाडोती ही बोलते देखा। जरूरी होने पर ही अंग्रेजी में बात करते थे। नेचर प्रमोटर ए एच जैदी बताते हैं कि वर्ष 2012 के दरीखाने के आयोजन के समय मैं दूसरे राज्य से खरीदी टोपी लगाकर पहुंच गया। जब पूर्व महाराव से दुआ सलाम करने पहुंचा तो मेरी टोपी को देख मुझ से कहा कोटा का ही छो न… मतलब साफ था कि बाहर की टोपी क्यों पहनी हुई है। वह अपनी कला संस्कृति के पक्षधर थे। समय के पाबंद रौब व शाही अंदाज के साथ सौम्य व्यवहार के धनी थे। उस समय उन्होंने मुझे पाग भी बख्शी थी। उस शख्सियत का आमजन के लिए जो स्नेह था वो शायद ही अब दरीखने में नजर आए।
सवारी की वापसी पर लगता था दरीखाना
इतिहासकार स्व.जगतनारायण श्रीवास्तव ने अपनी पुरस्कत में दरीखने व सवारी का जिक्र करते हुए लिखा है कि पहले महाराव दशहरा की सवारी में हाथी पर जाते थे। आखिरी में अस्वस्थता के कारण खुली जीप पर बैठकर जाने लगे। इस सवारी को को देखने जनता दूर-दूर से आती थी। सवारी की वापसी पर गढ़ में दरी खाना लगता था।

रावण का बदलता रहा स्वरूप स्वरूप
रावण का पुतले का वर्ष 1960 के करीब लकड़ी का मुख बनाया जाता था। इसमें सूत और रस्सी का प्रयोग किया जाता था। जिसे रावण दहन पर जंजीरों से बांध हाथी खिंचकर गिरा थे। फिर बदलाव आया और वांस, पन्नी और चमकीले कागज आदि का प्रयोग होने लगा। पहले रावण को पुराने मिट्टी के ढ़ांचों पर रखा जाता था। बदलाव के बाद पहली बार रावण का पुतला 35-40 फीट का तैयार किया गया था। जिसकी लम्बाई धीरे-धीरे बढ़ती गई। वर्ष 2019 में 101 फांट का रावण का पूतला बनाया।
खोता जा रहा स्वरूप
इतिहारकार फिरोज अहमद बताते हैं कि रियासत काल में महाराव उम्मेद सिंह द्वितीय ने कोटा में 1993 से दशहरा शुरू किया। पहले दरी खना अलग तरह से लगता था जिसमें जागीरदार और ठिकानेदार आकर महाराव को नजर पेश करते थे। इस परंपरा को पूर्व महाराव स्वर्गीय बृजराज सिंह नए सिरे से शुरू करवाया। जिसमें शहर के गणमान्य नागरिक, जनप्रतिनिधि पारंपरिक वेशभूषा में भाग लेते थे। वो जो भी करते अपनी संस्कृति को बचाने के लिए ही करते थे। यहां एक कहावत कही जाती थी कि रावण जी को तीसरो कोटा बारां निसरो इसका अर्थ या कि मेला तीन दिवसीय भरता था। लोग व व्यापारी गाडिय़ों में आते थे और यहीं रहते थे। जब मेला समाप्त होता तो दाल बाटी बनाकर खाते और रवाना होते थे। यहां का प्रमुख आकर्षण पशु मेला था। कई राज्यों से पशु व्यापारी यहां आते थे। धीरे-धीरे ग्रामीण परिवेश, पहनावा, कला और संस्कृति लुप्त होती जा रही है।
रोचक जानकारी उपलब्ध करने के लिए dhanyawad, भाई साहब हरिमोहन जी को, achchaa likha he