स्मार्ट सिटी के तहत हजारों करोड़ के काम हो रहे हैं। हर चीज को चमकाया जा रहा है लेकिन कोटा में हाल के सालों में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ) से प्रशिक्षित, हबीब तनवीर के शिष्य राजेन्द्र पांचाल के कोटा आने के बाद रंगकर्म को लेकर अच्छा माहौल बना है लेकिन जब उन्हें कोटा आर्ट गैलरी के छोटे से चौक में नाटक करते देखता हूं तो मन तड़फ उठता है।
-धीरेन्द्र राहुल-

(वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार)
राजस्थान में 18 बड़ी और तीन छोटी रियासतें थी, जिसमें झालावाड़ सबसे बाद में बनी यानी सबसे नई रियासत थी लेकिन यहां के महाराजा साहित्य ,कला और संस्कृति के अनुरागी रहे हैं। एक सौ दो साल पहले पारसी ओपेरा शैली में इतनी भव्य नाट्यशाला का निर्माण विलक्षण है। कल 16 जुलाई को इसका 102 वां स्थापना दिवस मनाया गया। भाई सर्वेश्वर दत्त की पोस्ट ने बाध्य किया कि मैं कुछ लिखूं।
जब अन्य राजे महाराजे शानशौकत और विलासिता में डूबे हुए थे, तब वे झालावाड़ में रंगकर्म और नाटक के बारे में सोच रहे थे।
दु:खद पक्ष एक ही है कि इतनी भव्य नाट्यशाला के बावजूद झालावाड़ में रंगकर्म परवान नहीं चढ़ा। यह कमी तो झालावाड़वासियों की है।
हाल ही में छत्तीसगढ़ के डोंगरगांव के रंगकर्मी मतीन का निधन हुआ तो महेन्द्र चौधरी की उनके बारे में लिखी पोस्ट पढ़कर मैं भावुक हो गया कि छोटे-छोटे गांवों में लोग नाटक करते रहते हैं। लेकिन हमारे यहां बड़े शहरों में सुप्तप्राय: है। आज इस संदर्भ में सोचा जाए तो बेहतर होगा।
यहां मुझे कोटा के संदर्भ में भी कुछ कहना है। स्मार्ट सिटी के तहत हजारों करोड़ के काम हो रहे हैं। हर चीज को चमकाया जा रहा है लेकिन कोटा में हाल के सालों में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय ( नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा ) से प्रशिक्षित, हबीब तनवीर के शिष्य राजेन्द्र पांचाल के कोटा आने के बाद रंगकर्म को लेकर अच्छा माहौल बना है लेकिन जब उन्हें कोटा आर्ट गैलरी के छोटे से चौक में नाटक करते देखता हूं तो मन तड़फ उठता है। सोचता हूं कि काश ऊपर वाले ने शांति धारीवाल के मन में कला संस्कृति के कुछ अंकुर बो दिए होते तो नाट्यकर्मियों को ये दिन नहीं देखने होते।झालावाड़ के महाराजा जो बात 102 साल पहले सोच गए उसे हमारे आज के हुक्मरान क्यों नहीं सोच पाते!
यही यक्ष प्रश्न है?
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नाट्य विधा हमारी सांस्कृतिक विरासत है,विरजू महाराज जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाट्यकरमी ,देश में उपजे हैं.ऐसे माहौल में वरिष्ठ पत्रकार राहुल जी की पीड़ा,कोटा के संदर्भ में विचारणीय है