meenakshi mandir

डॉ. पीएस विजयराघवन
(लेखक और तमिलनाडु के वरिष्ठ पत्रकार और संपादक)
देवी के शांत स्वरूपों में विश्व प्रसिद्ध मंदिर है मीनाक्षी अम्मन। अम्मन का आशय तमिल में देवी से है। करीब दो हजार साल पुराना यह मंदिर विश्व भर से पर्यटकों को आकर्षित करता है। कहा जाए तो मदुरै शहर के रोजगार का प्राण ही यह मंदिर है। आधुनिक विश्व के नए सात अजूबों की पहचान के लिए जिन तीस विरासतों को चयनित किया था उनमें यह मंदिर भी शुमार था। मीनाक्षी सुन्दरेश्वरर मन्दिर या मीनाक्षी अम्मन मन्दिर तमिलनाडु के मदुरै नगर में स्थित है। यह हिन्दू देवता शिव (सुन्दरेश्वरर) एवं उनकी भार्या (देवी पार्वती) मीनाक्षी या मछली के आकार की आंख वाली देवी के रूप में दोनों को समर्पित है। मछली पांड्य राजाओं का राजचिह्न रही है। यह ऐतिहासिक मन्दिर तमिल भाषा की जन्मस्थली कहे जाने वाले मदुरै जिसका अस्तित्व 2500 वर्ष पुराना बताया गया है की जीवन रेखा है।

पौराणिक कथा

पौराणिक कथानुसार भगवान शिव सुन्दरेश्वरर रूप में अपने गणों के साथ पांड्य राजा मलयध्वज की पुत्री राजकुमारी मीनाक्षी से विवाह रचाने मदुरई नगर आये थे। मीनाक्षी को देवी पार्वती का अवतार माना जाता है। मन्दिर का स्थापत्य एवं वास्तु अद्भुत है। मंदिर परिसर में 12 भव्य गोपुरम हैं जो अतीव विस्तृत रूप से शिल्पित हैं। इन पर बारीक एवं कुशलतापूर्वक रंग एवं चित्रकारी की गई है जो देखते ही बनती है। यह शहर व मंदिर तमिलों की अतिमहत्वपूर्ण विरासत है और तमिल संस्कृति व साहित्य से इसका प्रत्यक्ष सरोकार है। प्राचीनकालीन तमिल साहित्य में इसका वर्णन है। हालांकि मंदिर की मौजूदा संरचना का निर्माण सत्रहवीं शताब्दी से हुआ।
हिन्दू आलेखों के अनुसार भगवान शिव पृथ्वी पर सुन्दरेश्वरर रूप में पार्वती अवतार मीनाक्षी  से विवाह रचाने अवतरित हुए। देवी पार्वती ने पूर्व में पांड्य राजा मलयध्वज की घोर तपस्या के फलस्वरूप उनके घर में एक पुत्री के रूप में अवतार लिया था। तब भगवान आए और उनसे विवाह प्रस्ताव रखा जो उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस विवाह को विश्व की सबसे बड़ी घटना माना गया जिसमें लगभग पूरी पृथ्वी के लोग मदुरै में एकत्रित हुए थे। भगवान विष्णु स्वयं अपने निवास वैकुण्ठ से इस विवाह का संचालन करने आए।
ईश्वरीय लीला अनुसार इन्द्र के कारण उनको रास्ते में विलम्ब हो गया। इस बीच विवाह कार्य स्थानीय देवता कूडल अझगर द्वारा संचालित किया गया। इससे क्रोधित भगवान विष्णु ने मदुरै शहर में कदापि ना आने की प्रतिज्ञा की। और वे नगर की सीमा से लगे एक सुन्दर पर्वत अलगरकोईल में बस गए। उन्हें अन्य देवताओं ने मनाया एवं उन्होंने मीनाक्षी-सुन्दरेश्वरर का पाणिग्रहण कराया।
इस विवाह एवं भगवान विष्णु को शांत कर मनाना दोनों को ही मदुरै के सबसे बड़े त्यौहार के रूप में मनाया जाता है जिसमें लाखों श्रद्धालु शामिल होते हैं। अलगरस्वामी का वैगै नदी में उतरना भी चितिरै तिरुविझा या अलगर तिरुविझा का एक महत्वपूर्ण उत्सव है। इस दिव्य युगल द्वारा नगर पर बहुत समय तक शासन किया गया। पौराणिक कथा यह भी है कि देवराज इन्द्र को भगवान शिव की मूर्ति शिवलिंग रूप में मिली और उन्होंने मूल मन्दिर बनवाया। इस प्रथा का आज भी मन्दिर में पालन किया जाता है। त्यौहार की शोभायात्रा में इन्द्र के वाहन को भी स्थान मिलता है।

साहित्यिक उल्लेख

प्रसिद्ध हिन्दु शैव मतावलम्बी संत तिरुज्ञानसंबदर ने इस मन्दिर का वजूद सातवीं शती की शुरुआत माना है। मुस्लिम शासक मलिक कफूर की सेना ने 1310 में इस मंदिर में लूटपाट की थी और इसके प्राचीन अवशेषों को नष्ट कर दिया। मंदिर के पुनर्निर्माण का बीड़ा मदुरै के पहले नायक वंशी राजा विश्वनाथ नायक ने उठाया। उन्होंने अपने प्रधानमंत्री आर्यनाथ मुदलियार के पर्यवेक्षण में इस कार्य को शुरू कराया। तिरुमलय नायक का मंदिर के विस्तार में सर्वाधिक मूल्यवान योगदान रहा जिन्होंने १६२३ से १६५९ तक शासन किया। उन्होंने मन्दिर के वसंत मण्डप के निर्माण में उल्लेखनीय उत्साह दिखाया।

मन्दिर की संरचना

इस मन्दिर का गर्भगृह 3500 वर्ष पुराना बताया गया है हालांकि इसकी कोई प्रामाणिकता नहीं है। इसकी बाहरी दीवारें और अन्य बाहरी निर्माण लगभग 1500-2000 वर्ष पुराने हैं। इस पूरे मन्दिर का भवन समूह लगभग 45 एकड़ भूमि में बना है जिसमें मुख्य मन्दिर काफी विशाल है और उसकी लम्बाई 254मी एवं चैड़ाई 237 मी है। मन्दिर बारह विशाल गोपुरमों से घिरा है और इसकी दो परिसीमा और चार प्रवेश द्वार हैं इनमें दक्षिण द्वार का गोपुरम सर्वोच्च है। शिव मन्दिर मध्य में स्थित है जो देवी की पूजा अर्चना के बाद आगे बढने की ओर संकेत करता है। इस मन्दिर में शिव की नटराज मुद्रा भी स्थापित है। शिव की यह मुद्रा सामान्यतः नृत्य करते हुए अपना बायां पैर उठाए हुए होती है लेकिन शिव ने राजा राजशेखर पांड्य की प्रार्थना पर अपनी मुद्रा यहां बदल ली थी।

 मन्दिर का पवित्र सरोवर

पोत्रमरै कूलम पवित्र सरोवर 16 5 फीट लम्बा एवं 120 फीट चैड़ा है। भक्तगण मन्दिर में प्रवेश से पूर्व इसकी परिक्रमा करते हैं। इसका शाब्दिक अर्थ है स्वर्ण कमल वाला सरोवर और अक्षरशः इसमें होने वाले कमलों का वर्ण भी सुवर्ण ही है। एक पौराणिक कथानुसार भगवान शिव ने एक सारस पक्षी को वरदान दिया था कि इस सरोवर में कभी भी कोई मछली या अन्य जलचर पैदा नहीं होंगे और ऐसा ही है। तमिल धारणा के अनुसार यह नए साहित्य को परखने का उत्तम स्थल है। कहते हैं कि निम्न कोटि के कार्य इसमें डूब जाते हैं एवं उच्च श्रेणी का साहित्य इसमें तैरता है डूबता नहीं। तिरुवल्लुवर की तिरुकुरल इसका उदाहरण है।

अन्य आकर्षण

मंदिर के अन्य आकर्षणों में आइरम काल मण्डप या सहस्र स्तंभ मण्डप या हजार खम्भों वाला मण्डप है जो उच्चस्थ शिल्पकारी का विस्मयकारी नमूना है। इसमें 985 स्तम्भ हैं। यह भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अनुरक्षण में है। इसका निर्माण आर्य नाथ मुदलियार ने कराया था। मुदलियार की अश्वरोही मूर्ति मण्डप को जाती सीढियों के बगल में स्थित है। प्रत्येक स्तंभ पर शिल्पकारी की हुई है जो द्रविड़ शिल्पकारी का बेहतरीन नमूना है। इस मण्डप में मन्दिर का कला संग्रहालय भी स्थित है। इसमें मंदिर का 1200 वर्ष पुराना इतिहास देखा जा सकता है। इस मन्दिर का सबसे महत्वपूर्ण उत्सव मीनाक्षी तिरुकल्याणम है जिसका आयोजन अप्रैल के मध्य में होता है। इस उत्सव के साथ ही तमिलनाडु के अधिकांश मन्दिरों में वार्षिक उत्सवों का आयोजन भी होता है। इसके अलावा अन्य हिन्दु उत्सव जैसे नवरात्रि एवं शिवरात्रि भी यहां धूम धाम से मनती हैं।

(डॉ. पीएस विजयराघवन की आस्था के बत्तीस देवालय पुस्तक से साभार)

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