
– विवेक कुमार मिश्र-

घर – संसार से जीवन के संसार मे जीने का ढंग और रास्ता एक बड़े परिक्षेत्र के लिए मिलता है ….किसी को समझने के लिए उसके उस परिवेश में जाने की जरूरत है जहां से वह आता है। रसोई घर न केवल स्वाद की दुनिया को रचता बल्कि जीवन को भी गढ़ने का काम करता रहा है। रसोई में कैसे क्या बनता ….किस तरह का मेलजोल का दृश्य है…. जहां से परिवार की सामाजिकता व मानसिकता का दृश्य भी मानस पटल पर अंकित होता। यहां से हम सब जीवन को बनते देखते हैं। रसोई घर से हर उत्सव की शुरुआत होती। इस उत्सव को रचने में घर के बच्चे और महिलाएं सबसे आगे आती ….बच्चों की उछल – कूद , कौन क्या लेगा, कैसे पर्व को मनायेंगा और महिलाएं इस बात को लेकर शुरु हो जाती कि इस बार त्यौहार पर क्या बनना है ? कैसे बनाना है ? किसकी मदद से क्या बनाना है। कौन क्या कर सकता इस पर विधिवत रूप से चर्चा शुरु हो जाती इस तरह से त्यौहार की शाम चर्चा – दर – चर्चा जीवन के खजाने को सामने लेकर आ जाती। फिर शुरु हो जाता अपने हुनर और गुण के साथ पकवानों / व्यंजनों की दुनिया जहां जीवन अपने जीवंत रस के साथ चलता रहता । ….यहां पर…..तरह – तरह के व्यंजन / पकवान / गुझियां / पुवे / मालपुवे / ठेकुआ / सेवड़ा / नमकीन / मोटी नमकीन / बारीक नमकीन / और मिठाई कुल की तमाम घरेलू मिठाइयां बनना शुरु हो जाती। परिवार जब इकठ्ठा होकर रसोई में काम करना शुरु करता तो तय है कि कोई न कोई बड़ा पर्व आ गया जैसे की दीवाली या होली। इस बीच बच्चों का संसार अलग ढंग से चहकता / खिलता / खुलता । बच्चों की दुनिया वैसे तो हमेशा ही मगन रहती पर पर्व एक अलग ही खुशी और चहक का संसार लाते जब बच्चे किलकते हुए घर -आंगन में आते – जाते रहते …..यहां जीवन अपनी तमाम खूबियों के साथ दिखता …..सब व्यस्त रहते पर एक दूसरे की जरूरतों का ख्याल रखते हुए । रसोई घर से स्वाद की खुशबू आती और बालमन रसोई की चौखट से इस संसार को देखता रहता और तरह – तरह के स्वाद में खोता रहता ….तब डिब्बाबंद खाने का रिवाज नहीं था न ही बाजार से जल्दी मिठाइयां आती। जो कुछ भी रस – स्वाद व रंग था वह रसोई घर के झरोखे से उड़ता रहता। इस कला में घर संसार के कुछ लोग विशेष पारंगत होते …और जो जिसमें दक्ष होता उसकी कला का इश्तेमाल पूरा गांव – घर अपने हिसाब से करता रहता। किसी को किसी बात का अभिमान नहीं था। अभिमान रहित जीवन में जो खुशियां देखी जा सकती हैं वह कहीं नहीं मिलती। थोड़ा पीछे मुड़कर देखता हूं तो गांव – घर में पदार्थों की बाढ़ तो नहीं थी पर खुशियां इफरात तैरती रहती थी ….किसी को कुछ ज्यादा नहीं चाहिए बस अपने – अपने हिस्से की खुशियों में सब मगन मन खिलते हुए मिल जाते। मनुष्य के खिलने में बालमन का बड़ा योग है। जितना ज्यादा बालमन में रस और जीवन के रिश्ते होंगे उतना ही एक बालक का व्यक्तित्व विकसित होता है। बचपन और परिवार की सामाजिकता व जीवंत रसवत्ता ही किसी के जीवन की अनमोल उपाधि होती है।…इसके पीछे त्योंवहार व जीवन के पर्व सहजता के पुल पर सवार होकर जीवन में खुशियां लाते रहते थे। दीवाली का महीनों से इंतजार रहता ……..घर की साफ – सफाई, घर के चारों ओर रंग रोगन , गेरु और मिट्टी के घोल तथा गोबर से पूरे घर की लिपाई – पुताई हो जाती ….चारों तरफ से मिट्टी की सोंधी खुशबू आती…… इसी बीच बड़े आंगन में बड़ी सहजता से घर और पास पड़ोस की महिलाएं अपनी विशेषज्ञता के साथ पदार्थ का वितरण कर पकवान बनाने में जुट जाती । इस बीच कुछ हंसोड़ महिलाएं हंसी – खुशी गीत गाने लगती । श्रम का परिहार करते हुए यह समय संसार जीवन रस का स्वाद लेते हुए आगे बढ़ता है । इस स्वाद की दुनिया से होते हुए हम सब जीवन संसार में आते हैं। यहां रस और स्वाद के साथ जीवन का विकासक्रम आगे – आगे बढ़ता जाता है …..
यहां बड़े – छोटे सब जीवन का पाठ पढ़ते हुए सामने आते …. इस तरह कि सब कुछ यहीं हों ….जो यहां नहीं वह कहीं नहीं …..
जी !!!
हम लोग तो ऐसे ही बड़े हुए
यहीं पर संग्रह – त्याग का पाठ भी पढ़े ।
सारा ज्ञान – ध्यान रसोई की चौखट पर ही हुआ।
स्वाद यहां से उड़ता – उड़ता
मन आत्मा पर समा जाता
मिठाई की दुकान देखी ही नहीं
इसी तरह गुझिया और मिठाई का स्वाद
मन आत्मा पर बसता रहा।
साल – दर – साल । स्वाद उड़ता हुआ आ ही जाता …हर पर्व अपना स्वाद लेकर आता …दीवाली की बात ही निराली ….सब मिलकर उजियारा करते हैं ….एक उत्सव का भाव सबके मन में बना रहता । इस तरह से दीवाली मनाया जाय कि ….घर परिवार में पूरे संसार की जीवंतता अपने उत्सव के भाव में रमते हुए हमी से हमारी कहानी कहने लगे… हर दीवाली कहती है कि कितना पीछे गांव संसार छोड़ आये । शहर अपने ढंग से जगमग – जगमग होते रहते और गांव – घर मिट्टी के दिये के साथ खिलते रहते……..हमारी परिकल्पना और यथार्थ के घर ऐसे ही हैं …जहां बहुत सारे लोगों के बीच मिल बैठकर त्यौहार / उत्सव को मनाते हैं । कम से कम उत्सव में तो पास – पड़ोस को परिवार की तरह ही शामिल कर एक संयुक्त परिवार जैसा भाव अनुभूत किया जा सकता है ….बस इसके लिए कुछ फुर्सत के लोग होने चाहिए ।
एक साथ तीन पीढ़िया रसोई घर से जीवन का स्वाद रचती रहती थी ….बच्चे आनंद मग्न ….स्वाद – दर – स्वाद चखते ….क्योंकि बच्चों का आहार तो भगवान का प्रसाद समझा जाता था । यहीं बच्चे गजब के संतोषी भी होते …जब – तक माई – दादी – ताई – चाची – भाभी – बहने बन रहे व्यंजन उठा कर नहीं देती तब तक कुछ भी ग्रहण नहीं करते ….बस मन मानकर चौखट पर पड़े रहते …ऐसे ही ….इसी बीच किसी न किसी बड़े का मन पसिज जाता कि …देख न बाबू कब से ऐसे ही खड़ा है …एक मिठाई / एक गुझिया की खातिर …और धीरे से एक गुझिया हम बच्चों की ओर सरका दी जाती ….और अपन स्वाद लेते रहते कि बहुत बढ़िया बना है । यहीं पर एक कहावत भी चल पड़ी थी कि..’घी का लड्डू टेढ़ों भला’ ।
क्या बात है।पुराने दिन आँखों के सामने चलचित्र जैसे घूम रहे हैं।।