अंततः कविता ही बची रहेगी हृदय के कोने में

किसी भी कवि को उसकी किसी एक खास कविता या एक लेख में देखने की जगह उसे उसकी पूरी यात्रा के साथ देखना चाहिए जहां वह अपने संसार , अपने आसपास और अपने समकाल से किस तरह संवाद करता है तो यह संवाद ही उसके कवि और मनुष्य को बहुत दूर तक प्रकाशित करते हैं । इस दृष्टि से अतुल जी प्रकाश के कवि हैं और यह प्रकाश उन अंधेरों के लिए है जो हम सबके बावजूद बना हुआ है और फिर कवि को तल्खी में कहना लिखना पड़ता है ।

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– विवेक कुमार मिश्र-

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कवि व्यंग्यकार अतुल चतुर्वेदी के यहां कविता एक पैनी धार को धारण किए रहती है। यह धार अटपटा, उलजलूल और अनावश्यक को काटने के लिए काफी है और इसके बाद जो कविता रह जाती है वह अंतः सलिला की तरह हृदय पर वास करती है । किसी भी कवि को उसकी किसी एक खास कविता या एक लेख में देखने की जगह उसे उसकी पूरी यात्रा के साथ देखना चाहिए जहां वह अपने संसार , अपने आसपास और अपने समकाल से किस तरह संवाद करता है तो यह संवाद ही उसके कवि और मनुष्य को बहुत दूर तक प्रकाशित करते हैं । इस दृष्टि से अतुल जी प्रकाश के कवि हैं और यह प्रकाश उन अंधेरों के लिए है जो हम सबके बावजूद बना हुआ है और फिर कवि को तल्खी में कहना लिखना पड़ता है । कोरोना काल में उनका संग्रह ‘स्मृतियों में पिता’ आया जो घर , पड़ोस , मानवीय समाज , चलते फिरते आदमियों की आहट को केंद्र में रखते हुए सीधे सीधे हमारे जीवन से संवाद करता रहा है । यहां अकेली औरत का संघर्ष उसकी जिजीविषा बन कर बात करता है –
अकेली औरत समय की सबसे ऊंची शिला पर चढ़
उद्घोष करती है
अपनी जिजीविषा का (अकेली औरत)
यह इसलिए कि यदि वह चुप रह जाए तो सब मिलकर उसे खत्म कर दें । इसलिए उसे बराबर अपने अस्तित्व की , अपने होने की आवाज देनी पड़ती है। यह पीड़ा भी हो सकती पर जीवन के लिए हर तरह की यातनाओं में अपनी पहचान और आवाज को रखना ही मनुष्यता और जिजीविषा का दर्शन है । यह संकट केवल अकेली औरत का नहीं है यह गांव घर समाज में रह रहे हर आदमी का है । तभी तो गांव के पेड़ भी सबसे यहीं सवाल करते हैं कि तुम कहां हो और तुम हो तो यह सब क्यों हो रहा है …हमारी आवाजें कहां दब जा रही हैं । क्यों कोई नहीं सुनता …और कब तक ऐसे ही गूंगे बहरे की तरह हम रहेंगे ???
गांवों में पेड़ों का दर्द
सुनने का वक्त और धैर्य किसी के पास बचा है क्या
हर आते जाते से वे पूछते हैं यहीं सवाल बार बार । ( गांवों में पेड़)
इस ख़तरनाक चुप भरे खेल में हम सब एक दिन मारे जाएंगे। इस चुप्पी में हम मारे जाएंगे यदि इतना ही होता तो ठीक होता पर आने वाली पीढ़ियों का भी खतरा है इसलिए तुम चुप रहो पर कवि और कविता चुप नहीं रहेगी जो भी खतरा है वे उठायेंगे और यही से मनुष्यता के पक्ष में एक बड़े उद्घोष की कविताएं अतुल चतुर्वेदी के यहां आती हैं –
हम सब चुप हैं
हम सब अच्छे हैं
एक चुप्पी भारी पड़ती है कई भावी पीढ़ियों पर
हम सब खुश रहना चाहते हैं
इसलिए भी चुप हैं (चुप्पी)
मनुष्य की ध्वनियों को कवि प्रकृति के माध्यम से भी पूरा करता है । इसलिए वे लिखते हैं कि हर विपरीत स्थिति में कविता और कोंपल फूट सकती है और कविता गहरे अर्थों में जीवन पथ पर कोंपल की तरह ही फूटती है –
फूट सकती है एक कोंपल
घोर तुषारापात के मौसम में भी ( जो कुछ बचा है )
कवि के यहां जो सारा संघर्ष है जो चेतना की कशमकश है उसमें पिता की स्मृति , पिता का होना और हर कदम पर छाया की तरह चलना , संरक्षण करना संस्कृति और मानवीय अस्तित्व से लेकर मानवीय संबंधों की बड़ी गाथा को सामने रखकर चलना है –
वह आज भी रहना चाहते हैं साथ
हर बुरी नज़र से हिफाजत करते हुए
दुर्दिनों की बारिश में छाता बन साथ चलते हुए ( स्मृतियों में पिता )
पिता ही हैं जो हर कदम पर साथ चलते रहते हैं खुद दुखों की चादर ओढ़ कर संतति की रक्षा करते हैं ।
इस कदर पसरा है डर जीवन में
भरोसा टूट गया है अपने आप पर
हवाओं में लगती है साजिशें टहलती हुई (डर)
फिर भी कितना डर बना है । और ऐसे में आदमी किस तरह सत्ता के गलियारे में खड़ा है उसे रख उनका कवि अपने व्यंग्यकार से कहला देता है कि इस आदमी से तो काम नहीं चलेगा न ही यह डर ठीक है –
वे सुविधा के गलियारे में
सिकुड़े खड़े रहेंगे
सब कुछ ठीक ठाक होने तक (डर)
इन्हीं स्थितियों में चलते चलते वह जीवन की अपार संभावनाओं के लिए प्रकृति के विस्तार में जाता है ।
तितलियां अब हमारी स्मृति वन का एक हिस्सा हैं
या नदी सभ्यता का ध्वंस अवशेष
उन्हें ढ़ूढ़ने हमारी पीढियां किसी संग्रहालय में जाएंगी
पढ़ेगी उनका इतिहास किसी वनस्पति विज्ञान की किताब में
और तितलियां हंसेगी मुंह ढ़ाप के हमारे तथाकथित विकास पे ( तितलियों की स्मृति में)
तितलियां कविता में इसी अंध विकास की कोंख में बैठे विनाश को भी कवि देखता है जिसे विकास के नाम पर प्रकृति का दोहन करने वाले देख नहीं पाते । यहां कविता है , तितलियां है , नदी है , पेड़ है , वनस्पतियां हैं पर तभी तक जब तक हम सही नीति और सही दृष्टि से इनके पास जायेंगे –
बीमार पड़ी अकेली औरत सदी की सबसे बड़ी त्रासदी है
उसके लिए नहीं है किसी के पास आंसू बहाने का समय
और न ही हाल चाल पूछने का शिष्टाचार ( बीमार पड़ी अकेली औरत)
लगातार लाचार, अकेले पड़े लोग , और बीमार औरत को कविता के रास्ते देखते रहने की जो यहां गुंजाइश बनती है उसका कारण यह है कि महानगरीय आधुनिकता में किसी के पास किसी को देखने , किसी की सेवा के लिए अवसर नहीं बचा । इस ओर जो बार बार संकेत करती कविताएं हैं वे मानवीय करुणा और कविता की सृष्टि हैं कि हम कहीं भी चलें जाएं यदि हमारा पड़ोस आसपास ठीक नहीं है तो हम कैसे चैन की नींद लें सकते और जो ले रहे हैं वे कैसे ले रहे हैं ? यहीं उनकी कविता और व्यंग्य दोनों सवाल की तरह खड़े होकर मनुष्यता की प्रगति के लिए पहरेदारी करते हैं । और जब आगे बढ़ते हैं तो मां की हंसी दिखती है एक दुर्लभ पुण्य सरोवर में डुबकी लगाने हेतु –
मां की हंसी
मानों एक उत्सव है
अपूर्व अवसर डुबकी लगाने का
दुर्लभ पुण्य सरोवर में ( मां की हंसी )
मां का पुण्य सरोवर पूरी सृष्टि के लिए है । यहीं से सभ्यता और संस्कृति के साथ साथ संस्कार की कहानियां चलती हैं। कवि जीवन का पक्षधर इस तरह भी है कि हर विपरीतता के बीच जीने की ज़िद और वह कला भी आती है जो संघर्ष को ताकत देती है । जो हमारी पहचान भी बनती है और बच कर निकल जाने वाले की खबर भी लेती है –
बचूं तो चलूं
या फिर बच बच कर चलूं
चलना ही बचना है
यथास्थिति तो मृत्यु है
अपनी ही हिकारत
और कर्तव्यहीनता के पाले में मरने से अच्छा है
चलूं भले ही घिसट घिसकर ही सही
उम्मीद की दिशा में
दो डगमग कदम ही सही …(बचाव के पक्ष में )
इसीलिए तो अंततः कवि कहता है कि उम्मीद की दिशा में दो डगमग कदम ही सही चलें । चलें थोड़ा ही चलें पर चलें । रुक जाना मृत्यु है । चलना उनके यहां जीवन और जीने का मुहावरा बन पड़ा है । कविता के बचे रह जाने की ज़िद में कवि उम्मीद की वाणी पर भरोसा करता चलता है जिससे यह दुनिया है और होने का कारण हर समय में बना रहता है । असंगतियां, विरोधाभास , उब , हताशा सब कुछ साथ साथ चलते रहते हैं ये सब हमारे आदि पड़ोसी हैं बस उम्मीद का ठीहा न छोड़ें तो कोई ऐसा समय और मुश्किल नहीं है जो मनुष्य के लक्ष्य संसार के बाहर हों । यहां बहुत कुछ किये जाने की ओर कविता एक सामाजिक साहस के रूप में संकेत करते हुए सामने आती हैं ।
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स्मृतियों में पिता
– अतुल चतुर्वेदी
रुझान पब्लिकेशन, जयपुर
मूल्य – 150 ₹
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– विवेक कुमार मिश्र
सह आचार्य हिंदी
राजकीय कला महाविद्यालय कोटा
एफ -9समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002

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Vivek Mishra
Vivek Mishra
Reply to  Editor
2 years ago

आपको लिखा अच्छा लगा। इसके लिए दिल से आभार।

Vivek Mishra
Vivek Mishra
Reply to  Editor
2 years ago

आपका बहुत बहुत आभार।