
-समय सिंह मीना

दुनिया के इस सुदीर्घ वितान में
भटकता रहा मैं दर-बदर
कहीं कुछ अच्छा देखा
तो कहीं कुछ हेय
उसी अनुरूप मैं
उसे रंग-रूप देता चला गया
कुछ कल्पनाओं में
कुछ हकीकत में
कुछ यूं ही अफसाने लिखता चला गया
यह अच्छा नहीं
यह कैसा व्यवहार है
यह दुनिया सिर्फ और सिर्फ
स्वार्थ की भाषा समझती है
अच्छा करो तो भी बुरा
और बुरा करने की सोचो
तो मन साथ नहीं देता
आखिर मैं करूँ तो क्या करूं
कहाँ जाऊँ
जो मुझे सुकून मिल सके
इस दुनिया को मैं समझ सकूँ
क्या इस दुनिया को कभी मैं
मेरे अनुरूप ढाल पाऊंगा
दौडता रहा इसी जिद में
लोगों की सुनता रहा
कुछ अपनी सुनाता रहा
सब अपने अनुसार मुझे
अच्छा बुरा बताते रहे
पर न जाने कैसा
कुछ अजीब सा
खालीपन हमेशा रहा
मुझे क्या चाहिए
आखिर क्यों मैं अतृप्त हूँ
कभी समझ ही नहीं पाया
जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि
अप्पो दीपो भव
जिन खोजा तिन पाइये, गहरे पानी पैठ
ऐसे बहुत सारे वाक्य सुने
सुनकर आत्ममंथन भी किया
पर फिर भी गहरे उतर नहीं पाया
क्या यह दुनिया का असर है
या मैं सही साधक नहीं
या फिर मैं सुपथ का पथिक नहीं
हां, बस और बस इतना ही
कुछ थोड़ा सा ही सही
जो इस कागज़ पर लिख सकूँ
कुछ अपनों से कह सकूँ
कि मैं दुनिया को समझता रहा
अपनी तरह से उसे
सीमित दायरों में बांधता रहा
पर उंगली कभी
स्वयं की ओर नहीं की
क्या यह मेरा अहं था
या मायाजाल
यह तो पता नहीं
पर अब
वक़्त है खुद से मिलने का
खुद से मुखातिब होने का
शायद, शायद यही है वह पथ
वह राह,
जिस पर चलकर
स्वयं से मिल सकूं
कुछ दुनिया को समझ सकूं
आखिर सुबह का भूला
शाम को घर लौटता ही है……
* समय सिंह मीना
सहायक आचार्य, संस्कृत
राजकीय कला महाविद्यालय,कोटा (राज.)
मो. नं. 9468624700
ईमेल: ssmeena80@gmail.com