इक ख़ालिश* थी जो ख़त्म हो न सकी। इक कशाकश* सी दरमियाँ है वही।।

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

बर्क़* की ज़द* में आशियाॅं है वही।
गुलसिताँ फिर धुआँ-धुआँ है वही।।
*
बे चराग़ी* यहाँ वहाँ है वही।
बे सितारों का आसमाॅं है वही।।
*
अब किधर कारवाॅं के साथ चलूँ।।
अपनी मंज़िल तो बे- निशाॉं है वही।।
*
इक ख़ालिश* थी जो ख़त्म हो न सकी।
इक कशाकश* सी दरमियाँ है वही।।
*
गिरते-गिरते वही दरो दीवार।
ख़स्ता*-हाली वही मकाॅं है वही।।
*
गो बहुत लग़्ज़िशें* बयान में हैं।
फिर भी होटों पे दास्ताँ है वही।।
*
सहमी-सहमी वही फ़ज़ा “अनवर”।
बदला-बदला सा आसमाॅं है वही।।
*

बर्क़*बिजली
ज़द*निशाने पर घेरे में
बे चराग़ी*दिया विहीन ॲंधेरा
ख़ालिश*जलन ईर्ष्या
कशाकस*खींचतान
ख़स्ता*टूटी फूटी अवस्था
लग़्ज़िशें*कमियाँ

शकूर अनवर
9460851271

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