
-सुनीता करोथवाल-

जब गांव छोड़ा यह बुजुर्गों जैसा था गठा हुआ,
तजुर्बे से सधा हुआ
बहुत सोच समझकर सबका भला सोचता था
कोई अकड़ नहीं
शांत, गरिमा से भरा, घर की रोंस की तरह हँसता मुस्कुराता
खेत से लेकर हर मोड़ पर अपनापन था
बेटियों का एक गांव नहीं गुहांड भी होता था
जहाँ भाईचारा था और ब्याह के नाम पत्तळ थी
बहन-बेटी का हाल-चाल पूछ सिर पुचकारता, नेग देता
एकदम साझा था।
इतना ईमानदार कि मन की तरह घर आर पार खुला रहता था
कहीं ताला नहीं था।
यूँ ही पड़े रहते थे पीतल के भारी बरतन दरवाजों पर, चौखट चबूतरे पर
घर एक दूजे के सहारे चलते थे।
जुबान ऐसी कि लौटे में नमक की डली पर सच झूठ तय होते थे
दया इतनी कि कुत्तों के लिए भी कहते “बिना झोळी के फकीर हैं बेचारे ”
बैलों तक की सौगंध उठाते थे लोग
बस कहने भर को मान लिया जाता था
इतने पक्के आदमी थे वे कच्ची छत्त वाले
कि बात ही बात में शर्तों पर जमीन छोड़ देते थे।
कच्चे आंगन में बखत मुंह अंधेरे जागकर इतना काम करते थे बूढ़े गांव
कि बैल चौरासी पहन मेहनत करते थे
कुएँ भोण से बांग देते
और औरतें कड़ी छैलकड़ियों पहन बगड़ बुहारती थी
हाळी बिजोटिये टांग हो हो करते रेहड़ू हांकते थे
दूध की झरण झरण बाल्टी पर झाग उतारती थी
हारे धुएं की सीटी देते थे
और कड़ियों में चिड़ियाँ कहती
ये सोने का बखत नहीं कमाने का दिन है।
चौंतरों- चबूतरों पर खुशियों की रस्सी बाँटी जाती थी
पटसन, सूत, अनाज, गोबर बाहर भीतर की शोभा थे
मगर थे
सब बूढ़े मर गए
और अब जवान हैं गांव,
पक्के और खूबसूरत
एक से एक ब्रांड से लदे, बाजार से सजे
थनों की मिठास छोड़ मुंह पर थैली लगाए
घर के बाहर आलीशान बैठक सजाए
मगर एकदम अकेले
न बोलते हैं, ना हंसते हैं, ना किसी चौपाल की रौनक हैं
इन पर जवानी का नशा तो है
भीतर से मगर ये भरभराए हुए हैं।
-सुनीता करोथवाल
बिल्कुल मन की बात शब्दों में इस तरह व्यक्त करती हैं कि दिल को छू जाती है।