उलझ रहा हूंँ नई मंज़िलों की राहों में। क़दम क़दम पे नया इम्तेहान रखता हूंँ।।

shakoor anwar
शकूर अनवर

ग़ज़ल

-शकूर अनवर-

हर एक सम्त* खुला आसमान रखता हूँ।
कहाँ हूँ देखिये कैसी उड़ान रखता हूँ।।
*
बयाने-ग़म* के लिये ही ज़ुबान रखता हूँ।
मैं अपनी फ़िक्र को हरदम जवान* रखता हूँ।।

गिरफ़्त मेरे क़लम की ज़मीं से ता ब फ़लक*।
नज़र में अपनी मैं दोनों जहान रखता हूँ।।
*
उलझ रहा हूंँ नई मंज़िलों की राहों में।
क़दम क़दम पे नया इम्तेहान रखता हूंँ।।
*
न आओ पास भी इतने कि टूट जायेंगे।
वो फ़ासले मैं जिन्हें दरमियान रखता हूंँ।।
*
मैं हादिसाते-सफ़र* से हूँ आशना* “अनवर”।
इसीलिये तो हथेली पे जान रखता हूंँ।।
*

सम्त*दिशा
बयाने-ग़म*दुखों का वर्णन
ज़ुबान*भाषा
फ़िक्र* चिंतन
गिरफ़्त*पकड़
ता ब फलक*आसमान तक
हादिसाते-सफ़र*यात्रा में होने वाली दुर्घटनाएँ
आशना*परिचित

शकूर अनवर
9460851271

Advertisement
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments