
– विवेक कुमार मिश्र-

चाय तबियत से बनी है
पर जुकाम है कि सारी गमक , सारे रंग और स्वाद को
न जाने कहां ले डूबा
कुछ भी ठीक नहीं लगता
इस बीच लेखकीय मन और रंग ही है
जो इन विपरीतताओं से भी जूझता रहता
और वह बराबर सोचता कि
दो चार कविताएं तो
इन दिनों जुकाम पर भी हो जाना चाहिए
जुकाम भी बिना किसी भेदभाव के सभी को हो जाता
नहीं देखता कि आप कौन हो ? क्या कर सकते हो ?
आप कोई भी क्यों न हो ?
कुछ भी कर लें जुकाम होकर रहेगा
मौसम इन दिनों में करवट ले रहा है
अब सूत भर भी इधर – उधर हुए नहीं कि
जुकाम चपेटे में ले लेगा
फिर सुनते रहिए ख्यालों की फेहरिस्त
एक से बढ़कर एक नुक्शे , एक से बढ़कर एक देशी अंदाज
फिर आपको लगेगा कि हमारा समाज कितना ज्ञानी है
यहां कितना ज्ञान भरा पड़ा है
और बिना किसी अभ्यास के
इस ज्ञान को बचा कर रखें हैं लोग
खर पतवार से लेकर एक से एक आश्चर्यजनक औषधियां
ऐसे खुलकर सामने आती कि
आपको कहने में देर नहीं लगती कि यहीं और यहां ही
ज्ञान का लोकतंत्र मूर्त रूप में है
जो समय व अवसर के हिसाब से जाग जाता
फिर गले को दुरुस्त करते हुए एक काढ़े वाली चाय पीजिए
और लोक व लोकतंत्र पर विचार करते रहिए।
– विवेक कुमार मिश्र
सह आचार्य हिंदी
राजकीय कला महाविद्यालय कोटा
एफ -9 समृद्धि नगर स्पेशल बारां रोड कोटा -324002