-अनीता मैठाणी-

कितना भी पीछे लौट जाऊँ
बचपन तक ना पहुँच पाऊँ
कितना कुछ छूटा है वहाँ
कैसे तुम्हें यकीन दिलाऊँ,
बस एक बार पहुँच जाऊँ
तो दौड़ के; पूरा समेट लाऊँ-
फुन्द्देे वाले सफेद ऊनी मौजे,
फ्रिल वाली पीच फ्राॅक,
रबड़ का खरगोश, (डैडी का कहना तू मेरा दोस्त है, मिट्टी का खरगोश है- बहुत याद आता है)
प्लास्टिक की धारी वाली बाॅल,
शू-पाॅलिश के डिब्बे की तराजू,
कांच की चूड़ियों के रंग-बिरंगे टुकड़े
इमली के बीज, माचिस की डिबिया,
आड़े-तिरछे कटे पत्थरों से बिछा आंगन,
जिस पर हम भाई-बहन पकड़म-पकड़ाई,
छुप्पम-छुपाई खेलते दूर खेत तलक निकल जाते।
आंगन और गोठ के बीच उगा अनार का पेड़
उस पर लगते छोटे पर मीठे अनार,
खेत की मेंढ़ पर लगे अमरूद, कुलुम, आड़ू के पेड़
बारह महीनों खिलते गेंदे के छोटे-छोटे फूल,
किताबों से काटी गयी रंगीन तस्वीरें,
सीढ़ी के नीचे अधलेटी रीता (निपट काली खूबसूरत कुतिया) और
दूध पीते काले-भूरे-सफेद चित्तेदार उसके सात-सात बच्चे।
घर के पास मीलों फैला चाय का बागान
उसके द्वार पर विशाल बांस का झुरमुट छूता आसमान
चाय के बागान से उठती गीली पत्ती और लकड़ी की खुशबू,
हवा से हिलती-डुलती शीशम की चमकदार हल्की हरी पत्तियों की कम्पन
जंगली बेर के कांटों के बीच छिलती उंगलियां।
तख़्त पर बैठी दादी की वरद मुस्कान
दादी का शाम के चार बजे के घुग्घु (आई.एम.ए. के परिसर से बजने वाला अलार्म) के साथ
चाय के लिए रसोई की तरफ देखना
सरदारनी (दादी की सहेली- जिन्हें छोटे-बड़े सब प्यार से सरदारनी कहते) के दुकान की टाॅफी,
चूड़ी ……… लो चूड़ी, आवाज लगाता चूड़ी वाला
नीली-पीली कांच की चूड़ियों को देखकर मचलना और
माँ-चाचियों के साथ हमारा भी हाथ आगे करना।
दादाजी का कभी-कभार दादी के साथ जंगल हो आना
बताता कि दादाजी अभी भी
दादी का कहा सुनते हैं, पर मानने से हिचकते हैं।
गोठ में बंधी काली भूरी गायों के हिलने-डुलने से
टुनटुन बजती गले की घंटी,
दूध की पीतल वाली बाल्टी,
जो चुर्रचुर्र कर मिनटों में भर जाती
दादी से- उफ्फ दर्द होता है उसे जरा धीरे करो- कहना
दादी का- धत् लाटी कहना।
पोस्टमैन के आने पर –
आती चिट्ठियों और मनी आॅर्डर के आने पर
चेहरों की खुशी बताती
दुनिया कितनी हसीन है।
जेठी मा, काकी और माँ का बहनों वाला प्यार
कोसों दूर से बंठे में भर-भर लाती पानी की धार
पानी से भीगा कपड़े का डिल्लो
लकड़ी की बैंच पर बैठा धूप सेकता रहता कभी।
गोधूलि पर लौटती गायों की घंटियों की रूनझुन।
सांझ होने से पहले ही बुरादे और राख से
चमका ली जाती लालटेन की हांडी,
और सांझ होते ही बत्तियां जलाकर टांग दी जाती
नियत स्थानों पर।
शाम को सबसे ज्यादा रौनक होती
आठ बाय आठ के रसोईघर में
जहाँ दिप्-दिप् कर जलती लालटेन की रोशनी में
आती तरह-तरह की आवाजें- हंसने-बोलने की
और रह-रहकर आती फूं-फूं- कर फूंकनी की आवाज,
बीच बीच में जरुरत के हिसाब से
घुटने पर रख कर तोड़ी जाती सूखी लकड़ियों की आवाज़,
एक चूल्हे में सुरंग बनाकर
भीतर ही भीतर निकाले गए थे
तीन चूल्हे, जिनमें रखे भड्डु पर खदबदाती दाल,
कड़ाही में छौंकी जाती परात भर काटी गई सब्जियां
गूंधा जाता एक सेर भर आटा पूरे परिवार के लिए,
चीनी-पत्ती और कुछ मेवे रखे जाते एक बड़े से लकड़ी के संदूक में
जिसकी चाबी दादी की कमर में खोंसी गयी धोती के साथ
झूलती रहती तिलिस्म की तरह।
घर के पीछे का इमली का बड़ा सा पेड़
जिसकी कुछ टहनियों पर लगते हमारे हिस्से की मीठी इमली,
(जब बड़े कहते कैसे खा रहे हो इत्ती खट्टी इमली, हम कहते ये तो मीठे हैं)
पेड़ के नीचे बोरी का टुकड़ा फैलाकर घेरे में लेटकर
आसमान को ताकते हुए
हम रचते घर-संसार।
इससे भी ज्यादा,
कहीं ज्यादा बहुत कुछ समेट लाऊँगी
कितना कुछ छूटा है वहाँ
तब तुम्हें यकीन दिलाऊँगी…
अनीता मैठाणी