गर्व से बतियाते हैं…

kumhar

उनकी बातचीत

-विनोद पदरज-

vinod padraj
विनोद पदरज

मेरे पिता बहुत अच्छा रेजा बुनते थे
ओड़ पास गांवों में धूम थी उनकी
हटवाड़े जाते थे तो माल कम पड़ जाता था
किसान तो उसकी खोळ से ही सर्दियां काट देते थे

मेरे पिता बहुत अच्छी जूतियां बनाते थे
चमड़े की बहुत परख थी उनको
और सूत की सिलाई ऐसी
कि जूतियां टूटती ही नहीं थीं
छोड़नी पड़ती थी
पर जिसने एक बार पहन ली बार बार आता था
काटती बिल्कुल नहीं थीं
पांव ऐसे मुलायम रहते थे उनमें कि जैसे मक्खन हों

मेरे पिता बहुत अच्छी छपाई करते थे
एकदम पक्का रंग
कपड़ा फट जाता था पर रंग नहीं जाता था
सावों में तो फुर्सत ही नहीं मिलती थी उनको

मेरे पिता बहुत अच्छी मूर्तियाँ बनाते थे
मुहं बोलती हुईं
कई मंदिरों में हैं उनकी बनाई मूर्तियाँ
सामने जाओ तो हाथ अपने आप जुड़ जाते हैं

मेरे पिता नामी कारीगर थे
खाट और मचल्या और पालना और गुड़ले
पीढ़ी दर पीढ़ी चलते थे
और सग्गड़ और गाड़ियां तो ऐसी
कि दूर दूर से लोग देखने आते थे

मेरे पिता के घड़े मशहूर थे इलाके में
वे छांट कर मिट्टी लाते थे और गूंदते थे आटे की तरह
फिर चाक पर घुमाकर अचक उठाते थे
पकाते थे आवे में
ऐसे घड़े जैसे सारे ही जुड़वां हों
मां उन्हें गेरू और खड़ी से रंगती थी
दो दो गर्मियों तक वापरते थे लोग
मजाल जो पानी ठंडा न रहे

मेरे पिता पत्थरों पर नक्काशी करते थे
कसीदा कारी
कैसे कैसे जालियां झरोखे बनाते थे
कि भीतर वाला तो सब कुछ देख लेता था
पर बाहर वाले को भीतर का कुछ भी नजर नहीं आता था

गर्व से बतियाते हैं दुपहरी करते हुए वे मजूर बेलदार
जिनके पिता सेठ साहूकार नहीं
जिनके पिता पंडित ब्राह्मण नहीं
जिनके पिता ठाकुर जमींदार नहीं

(स्मृतियों के कोठार से)

 

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